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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ।। ३११।। www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संबंधसे क्रोध आदि विकार पैदा होजाते हैं किन्तु वे कोधादिविकार आत्माके विकार नही हैं | भावार्थः स्फटिकमणि स्वभावसे लाल नहीं है किन्तु उसका तो सफेदही स्वभाव है परन्तु जिस समय उसके पास लालफूल रखदिया जाता है तो उसलालफूलके संबंधसे वहभी लाल होजाती है उसीप्रकार आत्मा स्वभावसे न तो क्रोधी है और न मानी लोभी आदिकही है किन्तु कर्मोंके संबंधसे वह क्रोधी लोभी वनजाता है इसलिये क्रोध आदि विकार आत्माके विकार नहीं हैं किन्तु कर्मोंके ही विकार हैं ॥ २५ ॥ कर्मोंस उत्पन्न हुत्रे विकल्पभी शुद्ध आत्मामें नहीं हैं इसवातको आचार्य समझाते हैं । कुर्यात् कर्म विकल्पं किं मम तेनातिशुद्धरूपस्य । मुखसंयोगजविकृतेर्न विकारी दर्पणो भवति ॥ २६ ॥ अर्थः- मुखके संयोगसे उत्पन्न हुवे विकारसे अर्थात् मलिनमुखके संबंधसे जिसप्रकार दर्पण मलिन नहीं होता उसीप्रकार कर्म चाहें कितनेहीं विकल्प क्यों न करो किन्तु अत्यंत शुद्धस्वरूप मुझ आत्माका वे विकल्प कुछ नहीं करसक्ते । भावार्थ:-- जिसप्रकार मलिन मुखके संबंधसे दर्पण मलिन नहीं होता वह स्वच्छही बना रहता है उसीप्रकार कर्मोंसे पैदाहुवे नानाप्रकारके विकल्पोंसे मेरा आत्मा विकल्पी नहीं वनसक्ता वह तो निर्मलही रहेगा ||२६| औरभी आचार्य इसीविषयमें कहते हैं । अस्तां बहिरुपाधचयस्तनुवचनविकल्पजालमप्यपरम् । कर्मकृतत्वान्मत्तः कुतो विशुद्धस्य मम किञ्चित् ॥ २७ ॥ अर्थः – बाह्य स्त्री पुत्र आदि उपाधितो दूररहो किन्तु शरीर वचन और विकल्पभी मुझसे भिन्न है क्योंकि For Private And Personal ।।३९१५
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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