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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ܕ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । किन्तु वही तत्व व्यवहारनयकी अपेक्षासे वाच्य है अर्थात् वचनसे उसको कुछ कहसक्ते हैं और पीछे वहतत्व गुणपर्याय आदिके विवरणसे सैकडों शाखास्वरूपमें पारणत होजाताहै। भावार्थ:-जिसप्रकार एकभी वृक्ष शाखा प्रशाखाओंसे अनेकप्रकारका होजाताहै उसीप्रकार यद्यपि निश्चयनयस आत्मा अवाच्य तथा एक है तोभी व्यवहारनयसे वह वाच्य अर्थात् वचनद्वारा वर्णन करनेयोग्य हैं तथा गुणपर्याय आदि भेदोंसे अनेकप्रकरका है॥ १०॥ व्यवहारनयभी हेय नहींहै किन्तु उपादेय और पूज्य है इसबातको आचार्य दिखातेहैं । "मुख्योपचारविवृतिव्यवहारोपायतो” यतः संतः ।। ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्वमिति व्यवहृतिः पूज्या ॥ ११ ॥ अर्थः-मुख्य जो शुद्धनय उसमें उपचार से है विवरण जिसका ऐसा व्यवहारनय है उसकी सहायतासे सज्जनपुरुष शुद्धजो तत्व उसका अवलम्बन करते हैं इसलिये व्यवहारनयभी पूज्यही है । भावार्थः--यह भलीभाति अनुभव है किजन्मलेते ही जीव इतने बुद्धिमान नहीं होते जोकि बिना प्रयास के ही वे असली तत्वको समझलेवे किन्तु उपदेशआदिके बलसे ही उनको असलीतत्व समझायाजाताहै और असली तत्वका जो स्वरूप है वह व्यवहारनयको अवलम्बन करके समझायाजाता है इसलिये असलीतखके आश्रयकरनेमें व्यवहारनयमी अवश्यकारण पडी अतः व्यवहारनय पूज्यही है किन्तु हेय नहीं ॥११॥ अव आचार्य निश्चयरत्नत्रय संसारका नाशक है इसवातको दिखाते हैं । . क. पुस्तक में मुरूमोपचारवितिम यहभी पाठ है तथा इसपाठ में इस साकका अभिप्राय यह है कि मुख्य मओ पवनय और उपचार जो व्यवहारनव इनदोनों के स्वरूपको व्यवहारनयकी सहायतास जानकर भव्यजविशुद्धतत्वका भाभय करते हैं इसलिये व्यवहारनयभी पूज्यही देय नही है। Slu३०२॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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