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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२९९॥ 40... 94 ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܣ܀ www.kcbatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । श्रुतपरिचितानुभूतं सर्व सर्वस्य जन्मने सुचिरम् । न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ।। ६ ॥ अर्थः-जिनको चिरकालसे सुना है और जिनका परिचय तथा अनुभव किया है ऐसे समस्त काम क्रोध भोग विकथा आदिक सर्वप्राणियों के जन्मकेलिये है अर्थात् उनकी प्राप्ति सबको सुलभरीतिसे हो सक्ती है किन्तु मुक्तिकेलिये शुद्ध जो आत्मज्योतिः उसकी प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है ॥ भावार्थः-काम क्रोध भोग विकथा आदिक पदार्थतो अनादिकालसे प्रत्येक जन्ममें सुनेगये हैं तथा उनका परिचय और अनुभव कियागया है इसलिये उनकी प्राप्ति तो संसारमें अत्यंत सुलभ है अर्थात् उहांधक कारण पाकरही वे तो बहुत शीघ्र प्रकट होजाते हैं किन्तु मुक्तिकोलिये शुद्ध आत्माकी प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है अर्थात् इसकी प्राप्ति जल्दी नहीं होसक्ती क्योंकि किसी जन्ममें इसको भलीभांति सुना भी नहीं है और न इसका परिचय तथा अनुभव किया है इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको शुद्ध आत्मज्योतिकी प्राप्तिकोलिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। आत्माका अनुभवभी कठिन है इसवातको आचार्य दिखाते हैं । बोधोऽपि यत्र विरलो वृत्तिवार्चामगोचरोवाढ़म् । अनुभूतिस्तत्र पुनर्लक्ष्यात्मनि परं गहनम् ॥ ७॥ अर्थः-और जिस आत्माका ज्ञानभी अत्यंत दुर्लभ है और जिसका वर्णनभी वाकेि अगोचर है अर्थात् वाणीसे जिसका वर्णन नहीं करसक्ते और जव उसका वाणीसे वर्णन ही नहीं करसते तच उसका अनुभव तो अत्यंत ही दुर्लक्ष्य है इसलिये आचार्य कहते हैं कि आत्मज्योति अत्यंत गहन है ।। भावार्थः-जो पदार्थ गहन नहीं होता है उसका ज्ञान तो करसक्त हैं अर्थात् उसको जानसक्ते हैं और 600०००००००००००००००..........0000000000000000०.०००००००००० X॥३९९ः । For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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