SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 1000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपश्चविंशतिका । योगियोंका हृदय संसारके चरित्रोंको देखकर कदापि विकारभावको नहीं प्राप्त होता इस वातको आचार्य दिखाते हैं। लोक एप बहुभावभावितः स्वार्जितेन विविधेन कर्मणा। पश्यतोऽस्य विकृतिर्जडात्मनः क्षोभमेति हृदयं न योगिनः ॥ ४५ ॥ अर्थः-अपने आप पैदा कियहुवे जो नानाप्रकारके कर्म उनसे यह लोक अनेक भावोंकर सहित है इसलिये इसजनस्वरूप संसारको देखते हुवेभी योगीका मन कदापि क्षोभको प्राप्त नहीं होता। भावार्थ:--जिसयोगीको भलीभांति आत्माका ज्ञान होगया है और जिसकी इच्छा मोक्षस्थानमें निवास करनेकी है उसयोगीके मनमें इसलोकके देखनेसे अंशमात्रभी क्षोभनहीं होता क्योंकि अपनद्वारा उपार्जनकिये कर्मोंसे यहलोक नानापरिणाममय होता है यह इसलोकका स्वभावही है इसबातको वह योगी भलीभांति समझताहै अब आचार्य लोकके उद्धारका उपाय बताते हैं । सुप्सएब बहुमोहनिद्रया दीर्घकालमविरामया जनः । शास्रमेतदधिगम्य साम्प्रतं सुप्रबोध इह जायतामिति ॥ ४६॥ अर्थ:-जिसका अंत नहीं है ऐसी जो गाढ़ मोहरूपीनिद्रा उससे यह लोक चिरकालसे सोयाहुआ है अब इसशास्त्रको जानकर जाग्रतदशाको प्राप्त हो । भावार्थ:-अनादिकाल वीतगया यहलोक मोहरूपी गाढ़ निद्रामें सोयाहुवा है इसलिये इसको इस बातका भी ज्ञान नहीं कि कौनसी वस्तु तो मुझे ग्रहण करनेयोग्य है और कौनसी वस्तु मुझे छोड़ने योग्य है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अब हुवा सो तो हुआ किन्तु आगेकेलिये शास्त्रके अभिप्रायको भलीभांति जानकर तो जाग्रत अवस्थाको प्राप्त हो जिससे तुमको उत्तमसुखामले नहीं तो अनादिकालतक तुमको ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܫ ܬ ܀܀܀܀܀܀ InR.. For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy