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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२८६ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । मोक्षरूपी उत्तमफलके इच्छुक है उनको चाहिये कि वे मनको अपने वशमें रक्खे और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही समाधिका आचरण करै अन्यथा उनको उत्तमफलकी प्राप्ति नहीं होगी ॥ ३५॥ जबतक मनमें परमात्माका ज्ञान नहीं होता है तभीतक बुद्धि शास्त्रोंमे भटकती फिरती है इसबातको आचार्य समझाते हैं। तावदेव मतिवाहिनी सदा धावति श्रुतगता पुरः पुरः यावदत्र परमात्मसंविदा भिद्यते न हृदयं मनीषिणः ॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि जबतक चित्त परमात्माके ज्ञानसे भेदको प्राप्त नहीं होता है तभीतक बुद्धिमानपुरुषकी बुद्धिरूपीनदी सदा शास्त्रों में आगे २ दौड़ती चली जाती है। भावार्थ:-बुद्धिमानपुरुष शास्त्रका स्वाध्याय इसीलिये करते हैं कि किसीरीतिसे परमात्माका ज्ञान प्राप्त होवे किन्तु जिससमय चित्त परमात्माके ज्ञानसे भिन्न हो जाता है अर्थात् जिससमय मनमें परमात्माका ज्ञान हो जाता है उससमय बुद्धिमानकी बुद्धि शास्त्रकी ओर नहीं जाती है ॥ ३६॥ संसारमें चैतन्यरूपी दीपकही देदीप्यमान है इसबातको आचार्य दिखाते हैं। यः कषायपवनैरचुम्बितो बोधवन्हिरमलोल्लसद्दशः किं न मोहतिमिरं विखण्डयन भासते जगति चित्प्रदीपकः ॥ अर्थः-जिस चैतन्यरूपी दीपकका पवनने स्पर्श नहीं किया है और जिसमें सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि मौजूद है तथा जिसकी दशा निर्मल और देदीप्यमान है ऐसा चैतन्यरूपी दीपक मोहरूपी अंधकारको नाश करता हुआ क्या जगतमें प्रकाशमान नहीं है? अवश्यही है। 00000000000000000000000000000000000000000000000000001 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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