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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥२८३ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । जाना पडता इसलिये दुःखसे सदा भयकरनेवाले मनुष्योंको आत्माका ही चितवन करना चाहिये ॥ २९ ॥ निश्चयावगमनस्थितित्रयं रत्नसांचतिरियं परात्मनि योगदृष्टिविषयीभवन्नसौ निश्चयेन पुनरेक एव हि ॥ अर्थः परमात्मामें जो निश्चय तथा ज्ञान और स्थिति है उन्हींको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र कहते हैं और केवली भगवानकी दृष्टिमें ये तीनों निश्चयनयसे आत्मस्वरूप ही हैं अर्थात् आत्मासे भिन्न सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र कोई पदार्थ नहीं । भावार्थः - परमात्मा है इसप्रकारका जो निश्चय है सो तो सम्यग्दर्शन है और परमात्माको भलीभांति जानना सम्यग्ज्ञान है तथा परमात्मामें स्थिरता रखना सम्यक्चारित्र है और यदि निश्चयनयसे देखाजावे तो ये आत्मस्वरूप ही हैं आत्मासे भिन्न नहीं है तथा केवली भगवान अपने केवलज्ञान तथा केवलदर्शनसे इनको आत्मखरूपही जानते हैं तथा देखते हैं ॥ ३० ॥ प्रेरिताः श्रुतगुणेन शेमुषीकार्मुकेण शरवद्द्द्गादयः बाह्यवेध्यविषये कृतश्रमाश्चिद्रणे प्रहतकर्मशत्रवः ॥ अर्थः——चैतन्यरूपी संग्राममें शास्त्ररूपी गुण (प्रत्यंचा) सहित जो श्रेष्टबुद्धिरूपी धनुष उससे प्रेरणा किये गये तथा बाह्यपादार्थोंके वेधनकरनेमें तत्पर ऐसे जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्ररूपी बाण हैं वे समस्त कर्मरूपी वैरियोंके नाशकरनेवाले होते हैं । भावार्थः-- जिसप्रकार संग्राममें प्रत्यंचासहित धनुषसे छोड़ेहुए बाणोंसे समस्तबैरी नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार चैतन्यरूपी संग्राम में शास्त्ररूपी प्रत्यंचासहित बुद्धिरूपी धनुषसे प्रेरित तथा बाह्यपदार्थोंके वेधन करने में For Private And Personal ||२८३ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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