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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥२७८॥ .०००००००400000000000000006086०००००००००००००००००००००००००००० www.kcbatirth.org पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-जिसप्रकार सुवर्णसे सुवर्णपात्रकी उत्पति होती है तथा लोहसे लोहपात्रकी उत्पत्ति होती है उसीप्रकार शुद्ध परमात्माकी भावना करनेसे शुद्धपद मोक्षदपकी प्राप्ति होती है तथा अशुद्ध भावनासे अशुद्धपद स्वर्गनरकादि पदकी प्राप्ति होती है। भावार्थ:-"कारण सदृशानि कार्याणि भवन्ति" अर्थात् कारणके समानही कार्य उत्पन्न होते हैं इस नीति के अनुसार जो भव्यजीव निष्कलंक शुद्ध बुद्ध परमात्माका ध्यान करते हैं उनको परमपद मोक्षपदकी प्राप्ति होती है अर्थात् वे मोक्षको जाते हैं और जो मनुष्य परमात्माकी भावना नहीं करते हैं उनको परमपदकी प्राप्ति नहीं होती अर्थात् उनको संसारमें नरकादिगतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है ॥ २० ॥ परमार्थको जाननेवाले योगीको किसीप्रकारके सुख दुःखका अनुभव नहीं करना पड़ता इसवातको आचार्य दिखाते हैं। कर्मभिन्नमनिशं स्वतोऽखिलं पश्यतो विशदबोधचक्षुषा । तत्कृतेऽपि परमात्मवेदिनो योगिनो न सुखदुःखकल्पना ॥ २१ ॥ अर्थः-समस्तकर्म मुझसे भिन्न हैं इसप्रकार निरंतर अपने दिव्यसम्यग्ज्ञानरूपी चक्षुसे देखनेवाले तथा परमात्माको भलीभांति जाननेवाले योगाके कर्मसे उत्पन्न सुखदुःखके होनेपरभी सुख दुःखकी कल्पना नहीं होती। भावार्थः-अपनेसे कर्मको भिन्न समझनेवाला और परमार्थको भलीभांति जाननेवाला योगीश्वर कर्म जनित सुखदुःखके होनेपरभी अपनेको सुखी दुःखी नहीं मानता ॥ २१ ॥ मानसस्य गतिरस्ति चेन्निरालम्ब एव पथि भास्वतो यथा । योगिनो दृगवरोधकारकः सन्निधिर्न तमसा कदाचन ॥२२॥ अर्थः-सूर्यकेसमान योगियोंके मनकी गति यदि निरालंबमार्गमें ही होवेतो कभीभी उनके सम्यग्दर्शन ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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