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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥२७६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा ॥ १६ ॥ अर्थः--जो २ वात मनमें होत्रे ( अर्थात् जिस २ वातकी मनमें इच्छा होवे ) उसी २ वातको सवसे पहिले छोड़ देवे इसप्रकार जिससमय में समस्त उपाधिका नाशहोजाता है उसीसमयमें आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होजाती है । भावार्थः——ज्ञान दर्शनकी परिपूर्णताही आत्माका स्वरूप है और जिससमयमें इस अखण्डज्ञान तथा दर्शन की प्राप्ति होजाती है उसीको स्वस्वरूपकी प्राप्ति कहते हैं किन्तु जवतक कर्मजनित राग द्वेष अथवा इच्छा आदि उपाधियों का संबंध इस आत्मा के साथ रहता है तबतक आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती इसलिये स्वस्वरूपकी प्राप्तीके इच्छुक भव्यजीवोंको चाहिये कि वे जिससमय चित्तमें इच्छा आदिक उपाधि उत्पन्न होवे उसीसमय उनका त्यागकर आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकरें ॥ १६ ॥ संहृतेषु स्वमनोऽनिलेषु यद्भाति तत्वममलात्मनः परम् । तद्गतं परमनिस्तरङ्गतामनिरुग्र इह जन्मकानने ॥ १७ ॥ अर्थः-पांचों इन्द्रियोंके तथा मनके और श्वासोच्छ्वास के संकुचित होनेपर जो आत्माका निर्मल तथा उत्कृष्टरूप उदित होकर शोभित होता है ऐसा वह अत्यंत निशल आत्मतत्व संसाररूपी वनकेलिये भयंकर अभिके समान है । भावार्थ:- जिसप्रकार वनमें लगी हुई अग्नि समस्तवनको भस्म करदेती है उसीप्रकार परमात्मतत्वभी समस्त संसारका नाशकरनेवाला है अर्थात् परमात्मतत्व के प्राप्तहोनेपर संसारका सर्वथा नाश होजाता है ॥ १७॥ निर्विकल्पपदवीका आश्रयणकरनेवालाही संयमी मोक्षपदको प्राप्त होता है इसवातको आचार्य दिखाते है । मुक्त इत्यपि न कार्यमञ्जसा कर्मजालकलितोऽहमित्यपि । निर्विकल्पपदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लभते परं पदम् ॥ १८ ॥ For Private And Personal १. २७६।।
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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