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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 90000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपश्चविंशतिका । को आश्रित है अर्थात् अज्ञानी वनरहे हैं बे तपस्वी जड़ हैं और वे नाटकके पात्रके समान शोभित होते हैं । भावार्थ:-जिसप्रकार नाटकका पात्र कभी राजा कभी मंत्री स्त्री आदि नानाप्रकारके वेषों को धारण करता है किन्तु वह वास्तविक राजा, मंत्री, स्वी, नहीं कहाजासता उसीप्रकार तपस्वीका वेष धारणकर जो तपस्वी चैतन्यरूपी तत्वकी और अपना लक्ष्य नहीं देते वे तवस्वी कहलाने के योग्य नहीं और वे जड़ हैं इसलिये तपस्वियोंको चैतन्यरूपी तत्वपर अवश्यही लक्ष्य देना चाहिये ॥ ११ ॥ भूरिधर्मयुतमप्यबुद्धिमानन्धहस्तिविधिनावबुध्य यत् । भ्राम्यति प्रचुरजन्मसङ्कटे पातु वस्तदतिशायि चिन्महः ॥ १२ ॥ अर्थः-अज्ञानीपुरुष अंधहस्तिन्यायके समान अनेकधौकर सहित ऐसे चैतन्यतत्वको जानकरभी अनेक जन्म संकटोंमें भ्रमण करता है ऐसा वह अत्यंत अतिशयका भंडार चैतन्यरूपी तेज आपकी रक्षाकरो । भावार्थ:-अंधेके आंखों के न होनेके कारण वह हाथीके समस्तस्वरूपको नहीं देखसक्ता इसलिये हाथीके समस्त स्वरूपके अज्ञानी उस अन्धेद्वारा बतलाया हुवा हाथीका स्वरूप जिसप्रकार प्रमाणभूत नहीं मानाजाता उसीप्रकार अज्ञानीद्वारा जाना हवा अनेकान्तात्मकचैतन्यतेज प्रमाणभूत नहीं मानाजासक्ता अतएव अज्ञानी चैतन्यस्वरूपको जानताहुवाभी संसारमेंही भ्रमण करता रहता है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा अतिशयशाली चैतन्यरूपी तेज सदा आपकी रक्षा करो ॥ १२ ॥ कर्मबंधकलितोप्यवंधनो द्वेषरागमलिनोऽपि निर्मलः । देहवानपि च देहवर्जितश्चित्रमेतदखिलं चिदात्मनः ॥ १३ ॥ अर्थः-जो आत्मा कर्मों के बंधनकर सहित होकरभी कर्मबंधनकर रहित है तथा द्वेष और रागसे ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 9090 २७३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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