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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.scbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२७ 6000 0406.. ܀܀ ....0000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपञ्चविंशतिका । आत्मतत्त्वकी भी अस्तिता नहीं बनसक्ती, क्योंकि यह भी न तो मनके गोचर है और न वचनके गोचर है यदि कोई इसप्रकारकी शंकाकरे तो ग्रंथकार कहते हैं कि उसकी इसप्रकारको शंका सर्वथा अयुक्त है क्योंकि वह चैतन्यतत्व मन तथा वचनके गोचर न होनेपरभी खानुभवगोचर है इसलिये आकाशके फूलके समान उसकी नास्तिता न कहकर अस्तिता ही कहनी चाहिये ॥७॥ नूनमत्र परमात्मनि स्थितं स्वान्तमन्तमुपयाति तद्वहिः । तं विहाय सततं भ्रमत्यदः को विभेति मरणान्न भूतले ॥८॥ अर्थः-जिससमय मन परमात्मामें स्थित होता है उससमय उसमनका नाश हो जाता है इसीलिये वह मन उसपरमात्माको छोड़कर जहां तहां बाहर भ्रमण करता है क्योंकि पृथ्वीतलमें मरणसे कौन नहीं डरता है? अर्थात् सर्व ही डरते हैं । भावार्थ-जबतक मनका संबंध इस आत्माके साथमें रहता है तबतक वह मन बाह्य पदार्थों में घूमता रहता है इसलिये आत्माकी परिणतिभी बाद्यपदार्थों में लगीरहती है किन्तु जिससमय यह आत्मा परमात्मा हो जाता है उससमय इसमनका सर्वथा नाश होजाता है उससमय इसकी बाद्यपदार्थों में परिणति नहीं लगती इसीलिये मन परमात्मामें स्थित न होकर बाह्यपदार्थों में ही घूमता रहता है क्योंकि पृथ्वीतलमें जब सब मरणसे डरते हैं तो अपने मरणका मनको भी पूरा २ भय है ॥८॥ तत्त्वमात्मगतमेव निश्चितं योऽन्यदेशनिहितं समीक्षते । वस्तु मुष्टिविधृतं प्रयत्नतः कानने मृगयते स मूढधीः ॥९॥ अर्थः यदि निश्चयसे देखाजावे तो चैतन्यरूपी तत्त्व आत्मामें है आत्मासे भिन्न किसीभी स्थानमें नहीं ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀ ग२७१॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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