SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२६२॥ 6000०००००००००००० ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पचनान्दपञ्चविंशतिका । काश, काल ये चार द्रव्य तो मेरा किसीप्रकार अहित नहीं करते किंतु मेरी सहायता ही करते हैं अर्थात् धर्मद्रव्य तो मेरे गमनमें सहकारी है तथा अधर्मद्रव्य ठहरनेमें सहकारी है और आकाशद्रव्य मुझे अवकाशदान देता है इसलिये अवकाशदान देने में वह भी मुझे सहकारी है और कालद्रव्यसे परिवर्तन होता है इसलिये परिवर्तन करनेमें वह भी सहकारी है परन्तु एक पुद्गलद्रब्यही मेरे बड़ेभारी अहितका करनेवाला है क्योंक नोकर्म तथा कर्मस्वरूपमें परिणत होकर पुद्गलद्रव्य मेरे आत्माके साथ बंधको प्राप्त होता है तथा उसकी कृपासे मुझे नानाप्रकारकी गतियों में भ्रमण करना पड़ता है और सत्यमार्ग भी नहीं सूझता है इसछिये इससमय भेदविज्ञानसे मैंने उसका खंडन किया है ॥ २५ ॥ शार्दूलविक्रीड़ित । रागद्वेषकृतैयथा परिणमेद्रूपान्तरैः पुद्गलो नाकाशादिचतुष्टयं विरहितं मूर्त्या तथा प्राणिनाम् । ताभ्यां कर्मघनं भवेदविरतं तस्मादियं संसृतिस्तस्यां दुःख परंपरेऽपि विदुषा त्याज्यौ प्रयत्नेन तौ ॥ अर्थ-जीवोंके नानाप्रकारके रागहषोंके करनेवाले परिणामोंसे जिसप्रकार पुद्गलद्रव्य परिणमित होता | है उसीप्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, तथा काल ये चार अमृर्तीकद्रव्य रागद्वेषके करनेवाले परिणामोंसे परिणमित नहीं होते तथा उसरागद्वेषकेद्वारा प्रबलकर्मों की उत्पत्ति होती है और उसकर्मसे संसार होता है तथा संसारमें नानाप्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं इसलिये कल्याणकी अभिलाषा करनेवाले सज्जनोंको चाहिये कि वे राग तथा द्वेषको सर्वथा छोड़ दें। भावार्थः-पुद्गलके अनेक परिणाम होते हैं उनमें रागहेषरूप जो पुद्गलके परिणामहैं उनसे सदा कर्म आत्मामें आकर बंधते रहते हैं और उन कौसे आत्माको संसारमें घूमना पड़ता है तथा वहांपर नाना ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܪܰ܀܀܀܀܀܀; For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy