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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥२५८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मन न्दिपश्चविंशतिका । हे भगवन् मैं शुद्धोपयोग में ही स्थित रहना चाहता हूं ॥ १८ ॥ यन्नान्तर्न बहिस्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान्नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम् ॥ कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणनाव्यहारवर्णोज्झितं स्वच्छं ज्ञानहगेकमूर्तितदहं ज्योतिःपरं नापरम् ॥ १९ ॥ अर्थः – जो आत्मस्वरूपतेज न तो भीतर स्थित है और न बाहिर स्थित है तथा न दिशामें ही स्थित है और न मोटा है न महीन है तथा आत्मारूपीतेज न तो पुल्लिंग है और न स्त्रीलिंग है तथा नपुंसकलिंग भी नहीं है और न भारी है और न हलका है तथा जो तेज कर्म, स्पर्श, शरीर, गंध, संख्या, वचन वर्णसे रहित है और जो निर्मल है तथा सम्यग्ज्ञान सम्यक्दर्शनस्वरूप है मूर्ति जिसकी ऐसा है उसी उत्कृष्ट तेजस्वरूप मैं हूं किन्तु आत्मस्वरूप उत्कृष्टतेजसे भिन्न नहीं हूं ॥ १९ ॥ शार्दूलविक्रीड़ित । एतेनैव चिदुन्नतिक्षयकृता कार्यं विना वैरिणा शश्वत्कर्मखलेन तिष्ठति कृतं नाथावयोरन्तरम् ॥ एषोऽहं स च ते पुरः परिगतो दुष्टोऽत्र निस्सार्यतां सन्दक्षेतरनिग्रहो न यवतो धर्मः प्रभोरीदृशः ॥ अर्थः- हे भगवन् चैतन्यकी उन्नतिको नाशकरनेवाले और विनाकारण ही सदा बैरी इस दुष्टकर्मने आपमें तथा मुझमें भेद डालदिया है किन्तु कर्मशून्य अवस्थामें जैसी आपकी आत्मा है वैसी ही मेरी आत्मा है तथा इससमय यह कर्म आपके सामने मौजूद है इसलिये इसदुष्टको हटाकर दूर करो क्योंकि नीतिवान् प्रभुओं का यही धर्म है कि वे सज्जनोंकी रक्षा करें तथा दुष्टोंका नाश करें । भावार्थः — हे भगवन् जिसप्रकार अनन्तविज्ञान अनन्तवीर्य अनन्तसुख तथा अनन्तदर्शन आदिगुण स्वरूप आपकी आत्मा हैं उसीप्रकार उन्हीं गुणोंकर सहित मेरी भी आत्मा है किन्तु भेद इतना ही है कि आपके For Private And Personal ||२५८।।
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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