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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥२४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । सहित प्रभु आत्मा जो सिद्ध है सदा हर्षसंयुक्त निवास करता है ॥ २७ ॥ सैंवैका सुगतिस्तदेव च सुखं ते एव दृग्बोधने सिद्धानामपरं यदस्ति सकलं तन्मे प्रियं नेतरत् ॥ इत्यालोच्य दृढं त एव च मया चित्ते धृताः सर्वदा तद्रूपं परमं प्रयातु मनसा हित्वाभयं भीषणम् ॥ अर्थः – जो सिद्धों की गति है वही तो एक सुगति है तथा जो उनका सुख है वही वास्तविक सुख है और वे सिद्धही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान हैं इसलिये ये तथा इनसे भिन्न और भी जो सिद्धों का स्वरूप है वह समस्त मुझे प्रिय है किन्तु इनसे अतिरिक्त और मुझे कुछ भी प्रिय नहीं है ऐसा मनमें दृढ़श्रद्धान करके मैंने सर्वकाल उन्हीं सिद्धोंका ध्यान किया है इसलिये मनसे समस्तभयंकरसंसारका भय छूटकर मुझे उत्कृष्ट उन्हीं सिद्धों के स्वरूपकी प्राप्ति हो ऐसी आशा सहित हूं ॥ २८ ॥ ते सिद्धाः परमेष्ठिनो न विषया वाचामतस्तान्प्रति प्रायो वच्मि यदेव तत्खलु नभस्यालेख्य मालिख्यते ॥ तन्नामापि मुदे स्मृतं तत इतो भक्त्याथ वाचालितास्तेषां स्तोत्रमिदं तथापि कृतवानम्भोजनन्दी मुनिः ॥ अर्थः — इस अधिकारको समाप्त करतेहुए आचार्य कहते हैं कि वे अलौकिक गुण के धारी भगवान सिद्ध`परमेष्ठी वचनके तो विषय हीं नहीं है इसलिये मैं जो उनके गुणका स्तवन अथवा उनके विषयमें कुछ वर्णन करना चाहता हूं वह आकाशमें चित्रकारी करता हूं ऐसा मालूम होता है (अर्थात् जिसप्रकार आकाशमें चित्रकारी करना कठिन बात है उसीप्रकार सिद्धपरमेष्ठी के विषय में भक्तिपूर्वक वर्णन करना अत्यंत कठिन है) तोभी उनसिद्धका स्मरणकियाहुआ नामभी हर्षका करनेवाला होता. है इसकारण भक्तिसे वाचालित होकर मुझ पद्मनन्दिनामक मुनिने यह उन सिद्धों की स्तुति की है ॥ भावार्थः - सिद्ध परमेष्ठी दृष्टिके अगोचर अमूर्तीक पदार्थ है इसलिये जब वे दृष्टि के अगोचर हैं देखने में For Private And Personal 000000000 ॥२४७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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