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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ....64404444 100000000९०११०१००००००००००००००००० www.kcbatirth.org पचनन्दिपश्चविंशतिका । सिद्धस्तुतिः । शार्दूलविक्रीड़ित। सूक्ष्मत्वादणुदर्शिनोऽवधिदृशः पश्यन्ति नो यान्परे यत्संविन्महिमस्थितं त्रिमुवनं स्वच्छं भमेकं यथा सिद्धांनामहमप्रमेयमहसां तेषां लघुर्मानपो मूढ़ात्मा किमु वच्मि तत्र यदिवा भक्त्या महत्या वशः ॥ " अर्थः-परमाणुपर्यन्त सूक्ष्मपदार्थोंको देखनेवालेभी अवधिज्ञानापुरुष अत्यंतसूक्ष्म जिनसिद्धोंको नहीं देखसक्के हैं तथा जिनकी ज्ञानकी महिमामें ये तीनोंलोक निर्मल नक्षत्रके समान स्थित मालुम पड़ते है और जो अपरिमित तेजके धारी हैं उन सिहोंकी स्तुतिको मैं अत्यन्त छोटा मनुष्य तथा अज्ञानी किसप्रकार करसक्ता हूं ? अर्थात् मैं उनकी स्तुतिकरनेमें समर्थ नहींहूं । तोभी प्रवल भक्तिसे प्रेरित हुवा मैं उनकी स्तुतिकरताहूं ॥ भावार्थ:-जोपदार्थ स्थूल तथा छोटा और परिमित होवे तथा उसका वर्णन करनेवाला योग्य होवे तो उस का वर्णन कियाजासक्ता है किन्तु सिहतो अत्यंत सूक्ष्म है जिनको परमाणुपर्यंत पदार्थों को प्रत्यक्षकरनेवाला अवधिज्ञानीभी नहीं देखसक्ताहै तथा अत्यंत महान है क्योंकि यह असंख्यात प्रदेशीभी लोक उनके ज्ञानमें एक नक्षत्रके समान झलकता है अर्थात् उनके ज्ञानके कोनेमें यह तीनलोक समारहा है और वे अपरिमित तेजके घारी हैं इसलिये अपरिमितभी है और मैं अत्यंत छोटा तथा अज्ञानी मनुष्य हूं फिर में किसप्रकार उनकी स्तुति करनेकौलिये समर्थ होसक्ताहूं? तोभी मुझे उनकी भक्ति प्रेरणा करती है इसलिये कुछ उनकी स्तुतिको करताहूं॥१॥ निश्शेषामरशेखराश्रितमणिश्रेण्यर्चितानिया देवास्तेऽपि जिना यदुन्नतपदप्राप्त्यै यतन्ते तराम । ...पुस्तकमें बस्तन्ममेकम्" यह मी पाहै तथा उसका भाशय यह है कि भगवानके शानमें यह तामाकाका साकाय बहुप स्तम्भके समान माम पता है। 16.000000000000016 0440000000000000000000000001. - ॥३३१॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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