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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२२४॥ 100000000000000000000000000..0............100.00A पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । उत्तमादिपात्रोंके दानों में खर्च होता है वास्तवमें वही घन उत्तमधन है और उत्तमआदिपात्रों के दानमें खर्च कियाहुवा वह धन परलोकमें नानाप्रकारके सुम्वोंका करनेवाला होता है तथा अनन्तगुणा होकर फलता है किन्तु जो धन भोग विलास आदि निकृष्टकार्यों में खर्च किया जाता है वह धन सर्वथा नष्टही हो जाता है तथा परलोकमें उससे किसीप्रकारका सुख नहीं मिलता और न वह अनन्तगुणा होकर फलताही है क्योंकि समस्त सम्पदाओंके होनेका प्रधान फल दानही है इसलिये धर्मात्माश्रावकोंको निरन्तर उत्तम आदि पात्रोंमें दान करना चाहिये तथा पाये हुवे धनको सफल करना चाहिये ॥ १५ ॥ औरभी आचार्य दानकी महिमाका वर्णन करते हैं। पुत्रो राज्यमशेषमर्थिषु धनं दत्वाभयं प्राणिषु प्राप्ता नित्यसुखास्पदं सुतपसा मोक्षं पुरा पार्थिवाः। मोक्षस्यापि भवेत्ततः प्रथमतोदानं निदानं बुधैःशक्त्या देयमिदं सदातिचपले द्रव्ये तथा जीविते॥१६॥ अर्थः-भूतकालमेंभी बड़े २ राजा पुत्रोंको राज्यदेकर तथा याचकजनोंको धनदेकर और समस्त प्राणियोंको अभयदान देकर अनशन आदि उत्तम तपोंको आचरणकर अविनाशी सुखके स्थान मोक्षको प्राप्त हुवे हैं इसलिये मोक्षका सबसे प्रथम कारण यह एक दानही है अर्थात् दानसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है अतः विद्वानों को चाहिये कि धन तथा जीवन को जलके वबूले के समान अत्यन्त विनाशीक समझकर सर्वदाशक्ति के अनुसार उत्तम आदि पात्रोंमें दान दिया करें ॥ १६॥ ये मोक्षं प्रति नोद्यताः सुनृभवे लब्धेऽपि दुर्बुद्धयस्ते तिष्ठन्ति गृहे न दानमिह चेत्तन्मोहपाशो दृढ़ः । मत्वेदं गृहिणा यदि विविधं दानं सदा दीयतां तत्संसारसरित्पतिप्रतरणे पोतायते निश्चितम्॥१७॥ अर्थः-अत्यन्तदुर्लभ इस मनुष्यभवको पाकर भी जो मनुष्य मोक्षकोलिये उद्यम नहीं करते हैं तथा घर M - For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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