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________________ www.kobatirth.org ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܐ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२०८118 पचनन्दिपश्चविंशतिका । दादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः तद्भावना भवत्येव कर्मणःक्षयकारणम् ॥४२॥ अर्थः-उत्तमपुरुषोंको बारह भावनाओंका सदा चितवन करना चाहिये क्योंकि उन भावनाओंका चितवन, समस्तकाँका नाशकरनेवाला होता है ॥ ४२ ॥ ॥ आचार्यवर वारहभावनाओंके नाम बताते हैं । अध्रुवाशरणेचैव भव एकत्वमेव च अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवाश्रवसंवरी ॥४३॥ निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता दादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवैः ॥४४॥ अर्थः-अध्रुव १ अशरण २ संसार ३ एकत्व ४ अन्यत्व ५ अशुचित्व ६ आश्रव ७ संवर ८ निर्जरा ९ लोक १. बोधिदुर्लभ ११ धर्म १२ ये बारह अनुप्रेक्षा जिनेन्द्रदेवने कही है ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ अनित्यभावनाके स्वरूपका वर्णन ॥ अधुवाणि समस्तानि शरीरादीनि देहिनाम् तन्नाशेऽपि न कर्तव्यः शोकोदुष्कर्मकारणम् ॥४५॥ अर्थः-प्राणियोंके समस्त शरीर धन धान्य आदिपदार्थ विनाशीक हैं इसलिये उनके नष्ट होने पर जीवोंको का॥२०८ कुछभी शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि उस शोकसे केवल खोटे काँका बंधही होता है ॥ ४५ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ 00000000000000000 ܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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