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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनान्दपश्चविंशतिका । दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थता ॥३१॥ अर्थ-धर्मात्मा गृहस्थों को मुनिआदिउत्तमपात्रोंमें शक्तिके अनुकूल दान भी अवश्य देना चाहिये क्योंकि बिना दानके गृहस्थोंका गृहस्थपना निष्फलही है ॥ ३१ ॥ दानं ये न प्रयच्छन्ति निर्ग्रन्थेषु चतुर्विधम् पाशा एव गृहास्तेषां बन्धनायव निर्मिता ॥३२॥ अर्थः-जो पुरुष निर्ग्रन्थयतीश्वरोंको आहार औषधि अभय तथा शास्त्र इसप्रकार चारप्रकारके दानको नहीं देते हैं उनकेलिये घर जालके समान केवल बांधनेकेलियेही बनायेगये हैं ऐसा मालूम होता है । भावार्थ:-जिसघरमें यतीश्वरों का आवागमन बना रहता है वे घर तथा उनघरों में रहनेवाले श्रावक धन्य गिनेजाते हैं किन्तु जो मनुष्य यतीश्वरोंको दान नहीं देते इसीलिये जिनके घरमें यतीश्वर नहीं आते वे घर नहीं हैं किन्तु मनुष्योंके फासनेकेलिये जाल हैं इसलिये भव्य जीवों को चाहिये कि वे प्रतिदिन यथायोग्य यतीश्वरोको दान अवश्य दिया करें ॥ ३२ ॥ अभयाहारभैषज्यशास्त्रदाने हि यत्कृते ऋषीणां जायते सौख्यं गृही श्लाघ्यः कथं न सः ॥३३॥ अर्थ:-जिस गृहस्थके अभयदान अहारनान औषधिदान तथा शास्त्रदानके करनेपर यतीश्वरोको सुख ॥ होता है वह गृहस्थ क्यों नहीं प्रशंसाके योग्य है ? अर्थात उसगृहस्थकी सर्वलोक प्रशंसा करता है इसलिये ऐसा उत्तमदान गृहस्थोंको अवश्य देना चाहिये ॥ ३३ ॥ समर्थोऽपि न यो दद्याद्यतीनां दानमादरात् ATIB000480.........000000000000000000000040 २०४ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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