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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ___www.kebatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-जूवा मांस मय वेश्या शिकार चोरी परस्त्री ये सात व्यसन संसारमें प्रवल पाप है इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि वे इनका सर्वथा त्याग करदेवें ॥ १०॥ अनुष्टुप् । धर्मार्थिनोऽपि लोकस्य चेदस्ति व्यसनाश्रयः ।। जायते न ततः सापि धर्मान्वेषणयोग्यता ॥ ११ ॥ अर्थः--जो पुरुष धर्मकी अभिलाषा करनेवाला है यदि उसकें भी ये व्यसन होवे तो उसपुरुषमें धर्म धारणकग्नेकी योग्यता कदापि नहीं होसक्ती अर्थात् वह धर्मकी परीक्षाकरनेका पात्रही नहीं होसक्ता इसलिये धर्मा पुरुषों को अवश्यही व्यसनोंका त्याग करदेना चाहिये ॥ ११॥ सप्तव नरकाणि स्युस्तरेकैकं निरूपितम् ।। आकर्षयन्नृणामेतद् व्यसनं स्वसमृद्धये ॥ १२ ॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि जिसप्रकार व्यसन सात है उसीप्रकार नरकभी सातही है इसलिये ऐसा मालूम होता है कि उन चरकोंने अपनी २ वृद्धिकेलिये मनुष्योंको खींचकर नरक केजानेकेलिये एक २ व्यसनको नियत किया है ॥ १२ ॥ धर्मशत्रुविनाशार्थ पापायकुपतेरिह । सप्ताङ्गवलवद्राज्यं सप्तभिर्व्यसनैः कृतम् ॥ १३ ॥ अर्थ:--और भी आचार्य कहते हैं कि धर्मरूपीवैरीके नाशकेलिये पापनामक दुष्टराजाका सातव्यसनोंसे रचाहुवा यह सात हैं अंगजिसके ऐसा वलवान् राज्य है। ॥१९७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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