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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अपेक्षा इसका प्रतिसमय विनाश होता रहता है इसलिये वह अनित्य भी है और इसका कोई शरीर नहीं इसलिये यह शरीररहित है और इसका कोई आश्रय ( आधार) नहीं इसलिये यह आश्रय रहित भी है । और यह तो चेतन है तथा शब्द पुद्गल है इसलिये यह शब्दरहित भी है तथा इसके साथ निश्चयनयसे किसी प्रकारकी कर्मों की उपाधि नहीं लगी हुई है इसलिये यह उपाधि रहित है और यह चैतन्यस्वरूप ज्योति है और इसको वचनसे कह नहीं सक्ते तथा मनसे विचार नहीं सक्त इमलिये यह वाणी तथा मनका अगोचर भी है इसलिये इसप्रकारके शुद्धात्माका वर्णन करना अल्पज्ञानियों केलिये कठिनहै॥ ५८। ५९।१९।११॥ अस्तां तत्र स्थितो यस्तु चिंतामात्रपरिग्रहः । तस्यात्र जीवितं श्लाघ्यं देवैरपि स पूज्यते ॥ ६२॥ अर्थः-जो पुरुष उसशुहात्मामें तिष्ठने वाला है वहतो दूररहो किंतु जो पुरुष इसशुहात्माका चिंतवन करनेवाला है उसकाभी जीवन इससंसारमें अत्यंतप्रशंसनीय है तथा उसकी बड़े २ देव आकर पूजा सेवा आदि करते हैं इसलिये भव्यजीवों को सदा शुद्धात्माका ही ध्यान करना चाहिये ॥ ६२ ॥ सर्वविद्भिरसंसारै सम्यग्ज्ञानविलोचनैः। एतस्योपासनोपायः साम्यमेकमुदाहृतम् ॥ ६३ ॥ अर्थः-समस्तपदार्थोके जाननेवाले तथा काँकररहित तथा केवलज्ञानरूपी नेत्रके धारी केवली भगवान इस शडात्माकी उपासना करनेका उपाय समता ही है ऐसा कहते हैं । भावार्थ:--समस्त पदार्थों में समता रखनेसेही इस आत्माकी भलीभांति आराधना होसक्ती है इसलिये आत्माकी उपासना करनेवाले भव्यजीवोंको समस्तपदार्थों में अवश्य समता रखनी चाहिये ॥ १३ ॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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