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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥१८२॥ | www.kobatirth.org पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आपारजन्मसन्तानपथभ्रान्तिकृतश्रमम् । तत्वामृतमिदं पीत्वा नाशयन्तु मनीषिणः ॥ ५७ ॥ अर्थः- आचार्य उपदेश देते हैं कि हेभव्यपुरुषो इस कहे हुवे चैतन्यामृतका पानकरो तथा इस अपार संसार में अनन्त तिर्यच नरक आदि पर्यायोंमें भ्रमरणकरनेसे जो खेद हुवा है उसको शान्त करो ॥ ५७ ॥ अतिसूक्ष्ममतिस्थूलमेकं चानेकमेव तत् । स्वसंवेद्यमेवद्यञ्च यदक्षरमनक्षरम् ॥ ५८ ॥ अनौपम्यमनिर्देश्यमप्रमेयमनाकुलम् | शून्यं पूर्णं च यन्नित्यमनित्यं च प्रचक्ष्यते ।। ५९ ।। निश्शरीरं निरालम्बं निश्शब्दं निरुपाधि यत् । चिदात्मकं परंज्योतिरवाङ्मानसगोचरम् ।। ६० ।। इत्यत्र गहने ऽत्यन्तदुर्लक्ष्ये परमात्मनि । उच्यते यत्तदाकाशं प्रत्यालेख्यं विलिख्यते ॥ ६१ ॥ अर्थः- आचार्य कहते हैं वह चैतन्यरूपीतेज अत्यन्त सूक्ष्म भी है और अत्यन्त स्थूल भी है, और एक भी है अनेक भी है, स्वतंवेद्य भी है अवेद्य भी है, अक्षर भी है, अनक्षरमी है, तथा उपमारहित है, अवक्तव्य है, अप्रमेय है, आकुलता रहित है, और शून्य भी है, पूर्ण भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है, और शरीर रहित है, आश्रय रहित है शब्दरहित है, उपाधिरहित है, तथा चैतन्यस्वरूपपरमतेजका धारी है, और न उसको बचनसेही कहसक्ते हैं तथा न उसका मनसे चितवन करसक्ते हैं, इसप्रकार यह परमात्मा अगम्य तथा दृष्टि के अगोचर है इसलिये For Private And Personal ||१८१ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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