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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 400000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पचनन्दिपश्चविंशतिका । केनापि परेण स्यात्सवन्धो वंधकारणम् । परैकत्वपदे शान्ते मुक्तये स्थितिरात्मनः ॥ २५ ॥ अर्थः-अन्यपदार्थों केसाथ जो आत्माका संबंधहोना है उससे केबल वंधही होता है तथा उसी आत्माका जो उत्कृष्ट शान्त और एकतारूप स्थानमें ठहरना है उससे मोक्षही होती है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को परपदार्थोसे ममत्वछोड़कर स्वस्वरूपमें ही लीन होनाचाहिये ॥ २५ ॥ विकल्पोर्मिभरत्यक्तः शान्तः कैवल्यमाश्रितः। कर्माभावे भवेदात्मा वाताभावे समृद्रवत् ॥ २६ ॥ अर्थः-पवनके थंभजानेपर जिसप्रकार समुद्र लहरियोंसे रहित, तथा क्षोभरहित, शांत, होजाता है उमीप्रकार जब इस आत्मासे सर्वथा कर्मों का संबंध छुट जाता है उससमय यह आत्मा भी समस्तप्रकार के विकल्पोंकर रहित, तथा केवलज्ञानकरसहित, शान्त, होजाता है॥ भावार्थः-यदि देखाजावे तो स्वभावसे समुद्र शान्त ही है किन्तु जिससमय पवन चलता है उससमय उसकी लहरी ऊंचेको उठती है तथा वह क्षुब्ध होजाता है परन्तु जिससमय पवन रुकजाता है उससमय फिर वहसमुद्र शान्त होजाता है उसीप्रकार निश्वयनयसे यह आत्मा भी शान्त ही है किन्तु कर्मके संबंधसे इसमें नानाप्रकारके विकल्प आकर खड़े होजाते हैं किन्तु जिससमय उनकर्मोंका संबंध छूट जाता है उस समय फिर वैसाका वैसाही आत्मा शान्त होजाता है ॥ २६ ॥ संयोगेन यदा यातं मत्तस्तत्सकलं परम् । तत्परित्यागयोगेन मुक्तोऽहमिति मे मतिः ॥ २७॥ 000000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००कम्प ॥१७१॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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