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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥१६ सार ...................0000000000000000000660646440444444661 पअनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः--जो चैतन्यस्वरूपतेज पुगल, धर्म, अधर्म, आकाश कालसे सर्वथा भिन्न है तथा ज्ञानावरमादिकाँसे रहित है और जिसकी बड़े २ देव तथा इन्द्र आदिक सदा पूजनकरते हैं ऐसा वह सभ्यस्वरूप 'उत्कृष्ट तेज' मेरी रक्षाकरो अर्थात् उसचैतन्यस्वरूपतेजको मस्तकनवाकर मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥ यदव्यक्तमबोधानां व्यक्तं सद्बोधचक्षुषाम् । सारं यत्सर्ववस्तूनां नमस्तस्मै चिदात्मने ॥ ३ ॥ अर्थ:-जिसचैतन्यस्वरूपआत्माको ज्ञानरहित अज्ञानीपुरुष अनुभव नहीं करसक्ते हैं तथा अखंड ज्ञानके धारक ज्ञानी जिसका सदा अनुभव करते हैं और समस्तपदार्थों में जो सारभूत है ऐसे उसचैतन्य स्वरूपआत्माकेलिये मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं ॥ ३ ॥ चित्तत्वं तत्प्रतिपाणिदेह एवं व्यवस्थितम् ।। तमश्छन्ना न जानन्ति भ्रमन्ति च बहिर्बहिः ॥४॥ अर्थः यद्यपि प्रत्येकप्राणीकी देहमें यह निर्मलचैतन्यरूपीतत्व विराजमान है तोभी जिनममुष्यों की आत्मा अज्ञानान्धकारसे ढकीहुई हैं वे इसको कुछभी नहीं जानते हैं तथा चैतन्यसेभिन्न वाह्यपदार्थों में ही चैतन्यके भ्रमसे भ्रान्त होते हैं ॥ ४ ॥ भ्रमतोऽपि सदा शास्त्रजाले महति केचन ।। न विदन्ति पर तत्वं दारुणीव हुताशनम् ॥ ५॥ अर्थः-कईएक मनुष्य अनेकशास्त्रोंका स्वाध्याय भी करते हैं तो भी तीवमोहनीयकर्मके उदयसे भ्रान्तहोकर लकड़ीमें जिसप्रकार अभि नहीं मालूम होती उसीप्रकार चैतन्यस्वरूपआत्माको अंशमात्र भी नहीं जानते ॥५॥ 0000000000000 ॥१६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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