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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir +0000000000000000000000 पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-मनुष्य सदा इसप्रकारका विचार करते रहते हैं कि सदा हमको कल्याणकी प्राप्ति होवे किन्तु दैवयोगसे जैसा होना होता है होता वैसाही है अपना किया हुवा कुछभी नहीं होता इसलिये सजनोंको ना चाहिये कि वे मोहके वशसे फैले हुवे जो “ सुख आदिकी वाञ्छारूप" नाना प्रकारके खोटे विकल्प उनको नाशकरके राग, हेष, रूपी विषसे रहित होकर अपने साम्यभावरूपीसुखमें स्थित रहै तभी उनको कल्याण की प्राप्ति होसक्ती है दूसरेप्रकारसे उनको कल्याण की प्राप्ति कदापि नहीं हो सक्ती ॥ ५३॥ बसन्ततिलका। लोका 'गृहप्रियतमासुखजीवितादि' वाताहतध्वजपटाग्रचलं समस्तम् । व्यामोहमत्र परिहृत्य धनादिमित्रे धर्मे मतिं कुरुत किं वहुभिर्वचोभिः ॥ ५४॥ और भी आचार्य उपदेश देते हैं कि हेभव्यजीवो ये घर, स्त्री, पुत्र, जीवन, आदिक समस्तपदार्थ पवनसे कपायेहुवे ध्वजाके कपड़े के अग्रभागके समान चंचल है इसलिये अधिक कहांतक कहाजावे धन, स्त्री, मित्र, आदिकमें फैले हुवे मोहको सर्वथा नाशकर धर्मही अपनी बुद्धिको लगाओ ॥ ५४॥ “पुत्रादिशोकशिखिशान्तिकरी' यतीन्दुश्रीपद्मनन्दिवदनाम्बुधरप्रसूतिः। 'सद्धोधसस्यजननी, जयतादनित्यपञ्चाशदुन्नतधियाममृतैकवृष्टिः ॥ ५५॥ अर्थः--पुत्र आदिमें फैलीहुई शोकरूपीअग्निको शान्त करनेवाली, तथा यति में उत्तम ऐसे जो पद्मनन्दीनामकयति उनका मुखरूपी जो मेघ उससे पैदा हुई, तथा श्रेष्टबोधरूपीधान्यको पैदा करनेवाली ऐसी यह अनित्यपश्चाशत्रूपीजलकी वृष्टि सज्जनोंके हृदयमें सदा जयवन्त रहो ॥ भावार्थ:-जिस प्रकार जलवृष्टि जलती हुई अभिको बुझा देती है तथा मेषसे पैदा होती है और ........0000 १०......... For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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