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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ॥१५८ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पग्रनन्दिपनर्विशतिका । आपत्तिरूप संसारमें रहेगा तो उसको अवश्यही दुःख भोगने होंगे यदि वह दुःख भोगते समय खेदमाने तो उसका भी खेद मानना सर्वथा व्यर्थ है इसलिये जो मनुष्य खेद करना नहीं चाहता उसको ऐसा काम करना चाहिये कि वह फिर संसारमें न आवे ॥ ४६॥ वसन्ततिलका । वातूल एष किमु किं ग्रहसंगृहीतो भ्रान्तोऽथवा किमु जनः किमथ प्रमत्तः। जानाति पश्यति शृणोति च जीवितादि विद्युच्चलं तदपि नो कुरुते स्वकार्यम् ॥ ४७ ॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि क्या इसमनुष्यको वाय आयगई है. अथवा यह किसी भूत पिशाचने पकड़ लिया है वा बावला होगया है अथवा उन्मादी होगया है जो कि समस्त जीवन, धन, स्त्री, पुत्र, आदिको विजलीके समान चंचल तथा विनाशीक जानता है देखता है सुनता है तो भी अपने हितके करने वाले कार्यको अंशमात्रभी नहीं करता ॥४७॥ शादलविक्रीड़ित। दत्तं चौषधमस्य नैव कथितः कस्याप्ययं मन्त्रिणो नोकुर्याच्छुचमेवमुन्नतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे । यत्ना यान्ति यतोगिनः शिथिलतां सर्वे मृतेः सन्निधौ वन्धाश्चर्मविनिर्मितापरिलसद्वर्षाम्बुसिक्ता. इव ॥ अर्थः-अपने प्रिय मनुष्यके मरजानेपर बुद्धिमानोंको ऐसा शोक कदापि नहीं करना चाहिये, कि मैंने इसको दवा नहीं दी अथवा किसी वैद्य अथवा मंत्रवादीको बुलाकर नहीं दिखाया क्योंकि जिसप्रकार चामके वंध वर्षाकालमें पानी पड़नेसे ढीले होजाते हैं उसीप्रकार मनुष्यकी मृत्युके समीप में रहनेपर कियेहुवे भी. प्रयत्न नहींकियेहुवेसे होजाते हैं ॥ १८ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ॥१५८ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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