SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । शार्दूलविक्रीडित। वाञ्छत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते नूनं मृत्युमुपाश्रयन्ति मनुजास्तत्राप्यतो विभ्यति । वा इत्थं कामभयप्रसक्तहृदयाः मोहान्मुधैव ध्रुवं दुःखोर्मिप्रचुरे पतन्ति कुधियः संसारधोरार्णवे ॥ ३६॥ अर्थः--आचार्य कहते हैं कि संसारमें समस्तप्राणी इन्द्रियोंसे पैदा हवे सुख की अभिलाषा सदा करते रहते हैं किन्तु वह सुख कर्मानुसारही मिलता है इच्छानुमार नहीं मिलता तथा सवेजीव निश्चयसे मरते हैं तो भी उस मृत्युसे डरते रहते हैं इसप्रकार मोहसे कामातुर तथा भयातुर होकर ये “ मूढ़वुद्धी प्राणी " व्यर्थही नानाप्रकारके दुःखरूपीतरङ्गॉस व्याप्त इससंसाररूपी समुद्र में डूबते है॥ ३९ ॥ मालिनी। स्वसुखपयसि दीव्यन् मृत्युकैवर्तहस्तप्रसृतघनजरोरुमोल्लसज्जालमध्ये । निकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं भवसरसि वराको लोकमीनोघ एषः ॥ ३७॥ अर्थः-औरभी आचार्य उपदेश देते हैं कि जिसप्रकार मल्लाहकरके विछायेहुवे जालमें मछलियोका समूह खेलता रहता है किन्तु समीपमें रहीहुई मरणरूपी भयंकर आपत्तिके ऊपर कुछभी ध्यान नहीं देता उसीप्रकार यह दीन लोकरूपीमछलियों का समूह, अपने सुखरूपी जलमें कालरूपी मल्लाहके हाथसे फैलाये हुवे जरारूपी विस्तीर्णजालमें क्रीड़ा करता रहता है किन्तु (व्यर्थ में हमारा जीवन चला जावेगा) इसप्रकारकी पासमें रहीहुई भी आपत्तिके ऊपर कुछ भी ध्यान नहीं देता ।। ३७ ॥ चालविक्रीडित । शृण्वन्नन्तकगोचरं गतवतः पश्यन बहून् गच्छतो मोहादेव जनस्तथापि मनुते स्थैर्य परं ह्यात्मनः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १ ܀ ܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy