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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ।। १५० ।। मरचुके और स्वयं भी मरनेके लिये यह बड़े आश्वर्य की बात है ॥ २८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपचविंशतिका । तयार है इसवातको जानता हुवा भी यह अज्ञानीजीव शोक करता है अनुष्टुप । मृत्योर्गतो याति न यास्यति । स हि शोकं मृते कुर्वन् शोभते नेतरः पुमान् ॥ २९ ॥ यो नात्र गोचरं अर्थः – जो प्राणी नतो मरा है तथा न मर रहा है और न मरेगा यदि वह अपने प्रियके मरने पर शोक करे तो उसका शोकतो शोभाको प्राप्त होसक्ता है किन्तु जो अनन्तों समय तो मरचुका तथा मररहा है और अनन्तोहीँ समय मरैगा यदि वह शोक करै तो उसका शोक करना सर्वथा व्यर्थ है इसलिये विद्वानों को अपने प्रिय स्त्री पुत्र आदिके मरनेपर कदापि शोक नहीं करना चाहिये ॥ २९ ॥ मालिनी । प्रथममुदयमुच्चैर्दूरमारोहलक्ष्मीमनुभवति च पातं सोऽपि देवो दिनेशः । यदि किल दिनमध्ये तत्र केषां नराणां वसति हृदि विषादः सत्स्ववस्थान्तरेषु ॥ ३० ॥ अर्थः सूर्यदेव भी एकहीदिनमें प्रथमतो प्रातःकालमें उदित होकर ऊंचा चढ़ता हुवा अत्यंत शोभाको धारण करता है तथा पश्चात् सायंकालमें अस्तहोजाता है उसीप्रकार समस्त पदार्थोंकी एकभवस्थासे दूसरीं अवस्था होती है उन अवस्थाओंको देखकर ऐसे कौन वुद्धिमानमनुष्य होंगे जो अपने मनमें विषाद करेंगे ? अर्थात् ऐसी स्वाभाविक स्थितिपर वुद्धिमान कदापि खेद नहीं करसक्ते ॥ ३० ॥ वसन्ततिलका । आकाश एव शशिसूर्यमरुत्खगायाः भूपृष्ट एवं शकटप्रमुखाश्चरन्ति । For Private And Personal ॥ १५०॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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