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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 4004400114000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००..." पचनन्दिपश्चार्विशतिका । अर्थः--जो मनुष्य अपने प्रियमनुष्यके मरनेपर तो चीक मार २ कर रोते हैं तथा उत्पन्न होने पर हर्ष मानते हैं उनकी उसप्रकारकी चेष्टाको बुद्धिमानपुरुष वावलापन कहते हैं क्योंकि यहसमस्तजगत् तो अज्ञानसे की हुई जो खोटी २ क्रिया उनसे उत्पन्न हुवा जो काँका बंधन उसके उदयसे सदा मरण तथा जन्मोंकी परंपरा स्वरूप ही है॥ भावार्थः-खोटी २ चेष्टाओंसे उत्पन्नहुवे कर्मके वशसे निरन्तर बहुतसे प्राणी इससंसारमें मरते हैं तथा जन्मते भी हैं इसलिये यहसंसार तो जन्ममरणस्वरूपही है किन्तु ऐसे संसारके स्वरूपको जानकर भी यदि मनुष्य अपने प्रियके मरने पर शोक तथा उत्पन्न होने पर हर्ष माने तो सर्वथा उनका बावलापन है ऐसा समझना चाहिये ॥ २३ ॥ गुर्वी भ्रान्तिरियं जड़त्वमथवा लोकस्य यस्मादसन् संसारे बहुदुःखजालजटिले शोकीभवत्यापदि। भूतप्रेतपिशाचफेरवचितापूर्णे श्मशाने गृहं कः कृत्वा भयदादमङ्गलकृताद्भावाद् भवेच्छङ्कितः ॥ २४ ॥ अर्थ:-आचार्य कहते हैं कि यह लोकका एक बड़ाभारी भ्रम है अथवा उसकी मूर्खता कहनी चाहिये कि अनेकदुःखोंसे व्याप्त इससंसारमें रहताहुवा भी आपत्तिके आनेपर शोक करता है क्योंकि जो श्मसान, भूत प्रेत पिशाच तथा फेंकार शब्द और चिता आदिसे व्याप्त है ऐसे श्मशानमें घर बनाकर तथा रहकर ऐसा कोंन पुरुष होगा जो अमंगलरवरूप तथा नानाप्रकारके भयको करनेवाले पदार्थोंसे भय करेगा ॥ भाथार्थ:--जिसप्रकार श्मसान आदिक भयके स्थानोंमें रहकर भयकरना मुर्खता है क्योंकि वहांपर नियमसे भय होगाही होगा उसहीप्रकार शोक आदिके स्थानस्वरूप इससंसारमें शोक करना भी व्यर्थ है इस लिये मनुष्योंको शोक आदिके 'स्थानस्वरूप ' इससंसारमें कदापि शोक नहीं करना चाहिये ॥ २४॥ 12900000000000000000000040०००००००००००००............ POH For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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