SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir ................... .............००००००००००००००.०...... पचनन्दिपञ्चविंशतिका । शार्दूलविक्रीड़ित। वृक्षावृक्षमिवाण्डजा मधुलिहः पुष्पाच पुष्पं यथा जीवा यान्ति भवाद्भवान्तरमिहामान्तं तथा संसृतौ। तज्जातेऽथ मृतेऽथवा न हि मुदं शोकं न कस्मिन्नपि प्रायः प्रारभतेऽधिगम्य मतिमानस्थैर्यमित्यङ्गिनाम्॥ अर्थः-जिसप्रकार पक्षी एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर चलेजाते हैं तथा जिसप्रकार भौंरा एक फूलसे दूसरे फूलपर उड़कर चलेजाते हैं उसहीप्रकार इससंसारमें अपने २ कर्मके वशसे जीव निरंतर एकगातिसे दूसरीगतिमें जाते हैं इसप्रकार प्राणियोंकी अनित्यताको समझकर विद्वान् न तो प्रायः प्राणियोंकी उत्पत्तिमें हर्षही मानता है और न उनके मरनेपर शोकही करता है ॥ १९॥ भ्राम्यत्कालमनन्तमत्रजनने प्रामोति जीवो न वा मानुष्यं यदि दुष्कुले तदघतः प्राप्तं पुनर्नश्यति । सज्जातावथ तत्र याति विलयं गर्भेऽपि जन्मन्यपि द्राग्बाल्येऽपि ततोऽपिनो वृष इति प्रासे प्रयत्नो वरः॥ अर्थः-अनन्तकालपर्यन्त इससंसारमें भ्रमण करते हुवे इसजीवको मनुष्यपनेकी प्राप्ति होवेही होवे ऐसा कोई निश्चय नहीं (नहीं भी होती है) दैवयोगसे यदि हो भी जावे तो खोटेकुलमें जन्मलेनेपर फिर भी वह पायाहुवा मनुष्यपना, उसखोटेकुलमें कियेहुवे पापोंसे नष्ट होजाता है यदि श्रेष्टजातिमें भी जन्म होजावे तो प्रथम तो गर्भही मरजाता है यदि गर्भसे वचजावे तो जन्मते ही मरजाता है यदि जन्मतेसमय भी । न मरै तो वाल्य अवस्थामें अवश्य ही मरजाता है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि धर्मकेलियेही प्रयत्न करना उत्तम है क्योंकि धर्ममें ही यहशक्ति है कि वह प्राणियोंको जन्म जरा आदिसे छुटाता है तथा जहांपर किसी प्रकारका दुःख नहीं ऐसे मोक्षपदमें लेजाकर जावोंको धरता है ॥ २० ॥ स्थिरं सदपि सर्वदा भृशमुदत्यवस्थान्तरैः प्रतिक्षणमिदं जगजलदकूटवन्नश्यति । ००००००००००००००००००००००००००००००००००6600000000000000 Sin४५ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy