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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३९॥ ... ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका । तथा उसमूढ़मनुष्यके धर्म अर्थ काम आदिका भी नाश होजाता है इसलिये विद्वानोंको इसप्रकारका शोक कदापि नहीं करना चाहिये ॥ ६ ॥ उपेंद्रवजा। उदेति पाताय रविर्यथा तथा शरीरमेतन्ननु सर्वदेहिनाम् । स्वकालमासाद्य निजेऽपि संस्थिते करोति कः शोकमतः प्रवुद्धधीः ॥७॥ अर्थः-जिसप्रकार सूर्य, अस्तहोनेके लिये उदय होता है उसहीप्रकार यहशरीर, भी, निश्वयसे नाश होनेकेलियेही उत्पन्न होता है इसलिये स्वकालके अनुसार अपने प्रिय स्त्री पुत्र आदिके मरनेपर भी हिताहित के जानने वाले मनुष्य कदापि शोक नहीं करते ॥ भावार्थः--जो पैदा होता है वह नियमसे नष्ट होता है जब स्त्री पुत्र आदिका शरीर पैदा हुवा है तो अवश्य ही नष्ट होगा आत्माका तो नाश हो ही नहीं सक्ता ऐसा जानकर वुद्धिमान पुरुष स्त्री पुत्र आदिके लिये किश्चित् भी शोक नहीं करते ॥ ७॥ और भी आचार्य शोकदूरकरनेका उपाय बताते हैं । भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पत्राणि पुष्पाणि फलानि यदत् । कुलेषु तत्पुरुषा:किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ॥ ८ ॥ अर्थः--जिसप्रकार वृक्षोंपर अपने २ कालके अनुसार नानाजातिके पत्ते फूल फल उत्पन्न होते हैं तथा अपने २ कालके अनुसारही वे नष्ट भी होते हैं उसहीप्रकार अपने २ कर्मों के अनुसार मनुष्य उच्च नीच आदि कुलोमें जन्म लेते हैं तथा नष्ट भी होते हैं इसलिय ऐसा भली भांति समझकर बुद्धिमानोंको उनकी उत्पत्तिमें हर्ष, तथा नाशमें शोक, कदापि नहीं करना चाहिये ॥ ८ ॥ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००6600 ||॥१३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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