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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२॥ 64०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००0000000000000 पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । तथा उसके भी फुलिंगे आकाशमें उड़करगयेथे उन फूलिंगाओंमेंसेही यह सूर्य भी एक फुलिंगा है। सारार्थ-भगवानकी ध्यानरूपी अग्नि सूर्यसे भी अधिक तेजवाली थी॥१॥ हाथोंको नीचे किये तथा निश्चल और नासाग्रदृष्टि तथा एकान्तस्थानमें ध्यानी भगवानको अपने मनमें ध्यानकर ग्रन्थकार फिर भी उत्प्रेक्षा करते हैं। _ शार्दूलविक्रीड़ित ।। नो किञ्चित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किञ्चिदृशोदृश्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न। तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टीरहःसंप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानकतानो जिनः॥२॥ अर्थः-भगवानको हाथसे करने योग्य कोई कार्य नहीं रहा है इसलिये तो उन्होंने हाथोंको नीचे लटकादिया है तथा जानेके लायक कोई स्थान नहीं रहा है इसलिये वे निश्चल खड़े हुवे हैं और देखने योग्य कोई पदार्थ नहीं रहा है इसलिये भगवानने नाकके ऊपर अपनी दृष्टि दे रक्खी है तथा एकान्त बास इसलिये किया है कि भगवानको पासमें रहकर कोई बात सुननेके लिये नहीं रही है इसलिये इसप्रकार अत्यंत निराकुल तथा ध्यानरसमें लीन भगवान सदा लोकमें जयवन्त हैं ॥२॥ रागो यस्य न विद्यते कचिदपि प्रध्वस्तमोहग्रहादत्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्देषोऽपि सम्भाव्यते । तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतोजातःक्षयकर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन् सदा पातु वः ॥३॥ अर्थः-मोह तथा परिग्रहके नाश हो जानेके कारण न तो किसी पदार्थमें जिस अर्हतका रागही प्रतीत होता है तथा अर्हत भगवानने समस्त शस्त्र आदिकों छोड दिया है इसलिये विहानोको किसी में जिस अर्हतका द्वेषभी देखने में नहीं आता तथा द्वेषके न रहनेके कारण जो शान्तस्वभावी है तथा शान्तस्वभावी होनेके 101000000000000000000000000000000000000000000000000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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