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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाः । अर्थः- जो मनुष्य धनके होते भी दान देनेमें आलस करता है तथा अपने को धर्मात्मा कहता है वह मनुष्य मायाचारी है अर्थात् उस मनुष्य के हृदय में कपट भराहुवा है तथा उसका वह कपट दूसरेभवमें उसके समस्त सुखों का नाश करने वाला है ॥ ॥१२५।। ७ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भावार्थः – जो मनुष्य धर्मात्मापनेके कारण दान आदि नहीं देते हैं तथा अपनेको मायासे धर्मात्मा कहते है उन मनुष्यों को तिर्यञ्च गतिमें जाना पड़ता है तथा वहांपर उनको नाना प्रकारके भूख प्यास संवधी दुःख भोगने पड़ते हैं इसलिये मनुष्यको कदापि मायाचारी नहीं करनी चाहिये ॥ ३१ ॥ ग्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि सन्ततमणुव्रतिना यथद्धिः । इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सदुत्तमदानहेतुः ॥ ३२ ॥ अर्थः--गृहस्थियोंको अपने धनके अनुसार एकग्रास अथवा आधाग्रास वा चौथाई ग्रास अवश्यही दान देना चाहिये क्योंकि इस संसार में उत्तमपात्रदानका कारण इच्छानुसार द्रव्य कब किसके होगा । भावार्थः - इच्छानुसार द्रव्य संसारमें किसीको नहीं मिलसक्ता क्योंकि शताधिपति हजारपति होना चाहता है तथा हजारपति लक्षाधिपति लक्षाधिपति करोड़पति इत्यादि रीतिसे इच्छाकी कहीं भी समाप्ति नहीं होती इसलिये ऐसा नहीं समझना चाहिये कि मैं हजारपति हूंगा तभी दान दूंगा अथवा मैं लखपति हूंगा तभी दान दूंगा किन्तु जितना धन पास में होवे उसके अनुसार ग्रास दोग्रास अवश्य दान देना चाहिये आचार्य दानका फल दिखाते हैं । मिथ्यादृशोऽपि रुचिरेव मुनीन्द्रदाने दद्यात्पशोरपि हि जन्म सुभोगभूमौ । कल्पाङ्घ्रिपा ददति यत्र सदेप्सितानि सर्वाणि तत्र विदधाति न किं सुदृष्टेः ॥ ३३ ॥ For Private And Personal 000000001 ॥१२५॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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