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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥१ . ३ ॥ ܕܕ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । और भी आचार्य धर्मकीमहिमाका वर्णन करते हैं। जन्मोच्चैः कुल एव सम्पदधिके लावण्यवारां निधिनीरोगं वपुरायुरादि सकलं धर्माद्धृवं जायते। सान श्रीरथवा जगत्सु न सुखं तत्तेन शुभ्रागुणायैरुत्कण्ठितमानसैरिव नरोनाश्रीयते धार्मिकः॥१८॥ अर्थः-संपदाकर अधिक उत्तमकुलमें जन्म तथा लावण्य और निरोग शरीर तथा आयु आदि समस्त बात निश्चयसे धर्म के प्रतापसे ही मिलती हैं । और संसारमें बह कोई लक्ष्मी नहीं है जो एकदम आकर धर्मात्मा पुरुषका आश्रय न ले तथा वह उत्तमसुख तथा वे निर्मल गुण भी संसारके भीतर कोई नहीं है जो धर्मात्मापुरुषको स्वयमेव आकर आश्रय न करै ॥१८॥ भावार्थः-धर्मात्मा पुरुषको उत्तमसे उत्तम लक्ष्मी तथा श्रेष्ठसे श्रेष्ठ सुख और समस्त निर्मल गुणोंकी प्राप्ति होती है इसलिये जो पुरुष इनवाताको चाहते हैं उनको भलीभांति धर्मका आराधन करना चाहिये १८४ और भी धर्मकी महिमा ही का वर्णन किया जाता है। भृङ्गा पुष्पितकेतकीमिव मृगा वन्यामिव स्वस्थली नद्यःसिन्धुमिवाम्बुजाकरमिव श्वतच्छदाःपक्षिणः। शौर्यत्यागविवेकविक्रमयशःसम्पत्सहायादयःसर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्म विना किञ्चन।।१८५॥ अर्थः-जिसप्रकार भौंरा स्वयमेव आकर फूलीहुई केतकीका आश्रय करलेता है तथा जिसप्रकार मृग घनमें अपने रहनेके स्थानको खयमेव जाकर आश्रय करलेते हैं तथा जिसप्रकार नदी स्वयमेव समुद्रको प्राप्त हो जाती है और जिसप्रकार हंसनामक पक्षी मानससरोवरको स्वयमेव प्राप्त करलेते हैं उसहीप्रकार वीरख दान | विवेक विक्रम कीर्ति सम्पत्ति सहाय आदिक वस्तु स्वयमेव धर्मात्माको आकर आश्रय करलेते हैं, किन्तु धर्मके विमा कोई भी वस्तु नहीं मिलती इसलिये जो मनुष्य वीरखादि वस्तुओंको चाहते हैं उनको चाहिये कि वे ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥१०॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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