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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका । आगे आचार्य इसवातको दिखाते हैं कि स्त्रीपुत्र आदिक यद्यपि विनाशीक है तोभी मोहसे मालूमहोते विपरीतही है। शार्दूल विक्रीड़ित । प्रातर्दर्भदलायकोटिघटितावश्यायविन्दुत्करप्रायाः प्राणधनांगजप्रणयिनीमित्रादयो देहिनाम् । अक्षाणां सुखमेतदुपविषवद्धर्म विहाय स्फुटं सर्व भङ्गुरमत्रदुःखदमहो मोहः करोत्यन्यथा॥१७४॥ अर्थः-संसारमें प्राणियोंके प्राण हाथी स्त्री मित्र पुत्र आदिक प्रातःकालमें दर्भके पत्तेके अग्रभाग पर लगे हुवे ओसके बूंदके समान चंचल हैं और इंद्रियोंसे उत्पन्न हुवे सुख भयंकर जहर के समान हैं तथा एक धर्म तो अविनाशीक तथा सुखका देने वाला है किन्तु धर्मसे भिन्न समस्त वस्तु क्षणभरमें विनाशीक हैं तथा दुःख देनेवाली हैं परंतु यह मोह अन्यथाही करता है अर्थात् जो वस्तु नित्य तथा सुखकी देनीवाली हैं वे मोहके उदयसे अनित्य तथा दुःखके देनेवाली मालूम पड़ती हैं और जो वस्तु अनित्य तथा दुःखके देनेवाली है वे मोहके सवव नित्य तथा सुखकी देनेवाली जान पड़ती है॥ १७४ ।। भव आचार्य इसबातको दिखाते हैं कि जवतक काल सम्मुख नहीं आता तवतक समस्त पुरुषार्थ चलता है इसलिये काल रोकनेका उपाय करना चाहिये । तावबल्गति वैरिणां प्रति चमूस्तावत्परं पौरुष तीक्ष्णस्तावदसिर्भुजौ दृढ़तरौ तावच कोपोद्गमः । भूपस्यापि यमोन यावददयःक्षुत्पीड़ितः सम्मुखं धावत्यन्तरिदं विचिन्त्य विदुषा तद्रोधको मृग्यते॥१७५।। अर्थः--जवतक क्षुधाकर पीड़ित यह निर्दयीकाल राजाकेभी सामने नहीं पड़ता तबतक उस राजाकी सेना भी जहांतहां उछलती फिरती है तथा उत्कृष्ट पौरुष भी मालूम पड़ता है तथा तबतक तलवार ख़ब शत्रुओंके नाश करनेकेलिये पैनी बनी रहती है तथा भुजा भी बलवान रहती हैं और कोपका भी उदय रहता ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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