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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥९४॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । प्राप्तं तु कामपि गतिं कुमते तिरश्चां कस्त्वां भविष्यति विवोधयितुं समर्थः ॥१६८॥ अर्थः-हे भव्यजीव बड़े पुण्य कर्मके उदयसे तुझे इस मनुष्य जन्मकी प्राप्ति हुई है इसलिये शीघ्रही कोई अपने हितका करनेवाला कामकर नहीं तो रे मूर्ख जिस समय तिर्यच आदि खोटी गतिको प्राप्त होजावेगा तो वहांपर तुझे कोई समझा भी नहीं सकेगा। भावार्थः-समझाने पर मनुष्यही शीघ्र समझ सक्ता है पशुमें यह शक्ति नहीं है जो समझाने पर समझजावे इसलिये भव्यजीवोंको मनुष्य जन्ममें ही ऐमाकाम करना चाहिये जिससे वे तिर्यच आदि खोटी गति को न प्राप्त होवे तथा वहां पर वे नाना प्रकार के दुःख न भोगें ॥ १६८ ॥ और भी आचार्य उपदेश देते हैं । शार्दूल विक्रीड़ित । जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले क्लेशान्मतेः पाटवं भक्तिं जैनमते कथं कथमपि प्रागर्जिताच्छ्रेयसः । संसारार्णवतारकं सुखकरं धर्मं न ये कुर्वते हस्तप्राप्यमनर्व्यरत्नमपि ते मुश्चन्ति दुर्बुद्धयः ॥ १६९ ॥ अर्थ:-जो मनुष्य अत्यंत कठिन मनुष्य जन्मको पाकर तथा उत्तम कुलको पाकर तथा किसी प्रकार पूर्वकालमें उपार्जन किये हुवे पुण्यके उदयसे जैनधर्मके भक्तभी होकर संसार समुद्रसे पारकरने वाले तथा नाना प्रकारके सुखके देनेवाले धर्मकी सेवा नहीं करते हैं वे मूर्ख हाथमें आयेहुवे अमूल्य रत्नको छोड़ देते हैं। भावार्थः-प्रथमतो रत्नकी प्राप्ति ही अत्यन्त कठिन है यदि प्राप्तभी होजावे तो उसको व्यर्थ फैक देना सर्वथा मूर्खता है उसही प्रकार उत्तम कुलादिको प्राप्त कर धर्मका न करनाभी मूर्खता है इसलिये भव्यजीवों को धर्मकी अवश्य उपासना करनी चाहिय ॥ १६९ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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