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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 64 www.kobatirth.org 'तिलोयपण्णति' में स्पष्ट है कि मुकुटधर राजाओं में अंतिम चंद्रगुप्त नामक नरेश ने जिनेन्द्र दीक्षा ग्रहण की। भद्रबाहु का जीवन श्रमणबेलगोला के मंदिर, मूर्तियों, किंवदंतियों के लिपियों के आधार पर डा. बसंतकुमार चटर्जी द्वारा निर्मित हुआ है। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु की दीक्षा आचार्य यशोभद्र के पास वीर निर्वाण संवत् 131 के बाद हुई । भद्रबाहु 45 वर्ष तक गृहस्थ में रहे और 14 वर्ष तक संघ के एक मात्र संघ के एक मात्र आचार्य रहे और वीर निर्वाण 170 के वर्ष में 66 वर्ष की आयु में इनका निर्वाण हुआ । भद्रबाहु ने ही दक्षिण भारत को जैनधर्म के रंग में रंग कर जैनमत के विकास में अभूतपूर्व योग दिया । कदम्ब और चालुक्यवंशी राजा अजैन होने पर भी जैनधर्म पर विशेष अनुराग रखते थे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भद्रबाहु का जन्म ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण सं. 94 में हुआ और 45 वर्ष के गृहस्थाश्रम के पश्चात् वीर निर्वाण संवत् 139 में भगवान महावीर के पाँचवें वट्टधर आचार्य यशोभद्रस्वामी के पास निर्ग्रथ श्रमणदीक्षा ग्रहण की। वीर निर्वाण संवत् 148 में आचार्य सम्भूतविजय के साथ आपको भी आचार्य पद पर नियुक्त किया। भगवान महावीर के छठे पट्टधर आचार्य सम्भूतविजय के स्वर्गवास के पश्चात् वीर निर्वाण संवत् 156 में संघ के संचालन की पूर्ण बागडोर सम्भाल ली। आचार्य भद्रबाहु को - आचरांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुत स्कन्ध, कल्प, व्यवहार, सूर्य प्रज्ञप्ति, और ऋषिभाषित इन दस सूत्रों, भद्रबाहु संहिता और वासुदेव चरित्र नामक ग्रंथ का कर्ता माना जाता है। आपको दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में पाँचवें तथा अंतिम श्रुतकेवली माना जाता है । अनेक लेखकों ने आपकी भावपूर्ण स्तुति की है। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन के अंतिम चरण में ही दिगम्बर और श्वेताम्बर - मतभेद का सूत्रपात हो चुका था। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं के ग्रंथों से देखने से पता चलता है कि भद्रबाहु कई हुए । दिगम्बर परम्पराओं में भद्रबाहु नाम के 6 आचार्य हुए हैं और श्वेताम्बर परम्परा में दो आचार्य । 1. तिलोयप्पण्णति, 4/1481 श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जैनमत में एक युग का पटाक्षेप होता है, क्योंकि भद्रबाहु के जीवन के अंतिम चरण में ही अखण्ड जिन शासन दिगम्बर और श्वेताम्बर की दो धाराओं में विभक्त हो गया और उसके पश्चात् शने शने अनेक गणों, संघों और सम्प्रदायों में बँट गया और सम्प्रदायवाद के रंग में रंग गया। उड़धरेसुं चरित्तो जिण दिवखं धर दिचन्दगुत्तोय | ततो मउड़धरा दुप्पव्वजजं णेय गिर्हति ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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