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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 51 दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में भगवान महावीर के ग्यारह गणधर बतलाये हैं। इनमें प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम थे। आचार्य गुणभद्र ने अपने पुराण में ग्यारण गणधारों के नाम इस प्रकार बताए हैं - इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मा, मौर्य, मौन्द्र, पुत्र, नैत्रेय, अमम्पन, अन्धवेल या अस्वयेल और प्रभास।' ___श्वेताम्बर साहित्य में नाम इस प्रकार हैं- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडिक (त) मौर्यपुत्र, अक्पित अचलभ्राता अक्पित, मेतार्य और प्रभास। इन्द्रभूति का गौत्र गौतम, वर्ण ब्राह्मण था, वे चारों वेद और छ वेदांगों के ज्ञाता थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में इन्द्रभूति के पश्चात् सुधर्मा के सम्बन्ध में स्वल्प जानकारी मिलती है। पार्श्वनाथ का धर्म चतुर्याम था। महावीर का धर्म पंच महाव्रत रूप तथा अचेलक है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में गौतम ने पार्श्व और महावीर के धर्म में उक्त अन्तर होने के कारण उनकी शिष्य परम्परा की प्रवृत्ति और मानस को ही बतलाया है। सारांश यह है कि पार्श्वनाथ की परम्परा के निग्रंथ सरलमति और समझदार हो थे, इसलिये आधक विस्तार न करने का भी वे यथार्थ आशय को समझकर ठीक रीति से व्रत का पालन करते थे, किन्तु महावीर की परम्परा के निग्रंथ कुटिल और नासमझथे। इसलिये महावीर ने परिग्रह त्याग व्रत में स्त्री त्याग व्रत को पृथक करके व्रतों की संख्या पाँच कर दी। 'स्थानांग सूत्र' की व्याख्या टीकाकार ने प्रस्तुत की है, मध्य के 4 तीर्थंकर तथा वेदेहस्थ तीर्थंकर चतुर्याम धर्म का तथा प्रथम और अंतिम पंचयाम धर्म का कथन शिष्यों से अपेक्षा करते हैं। वास्तव में तो दोनों पंचयाम धर्म का कथन प्रतिपादन करते हैं, किन्तु प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु ऋजु जड़ से वक्र जड़ से होते हैं, अत: परिग्रह छोड़ने का उपेक्षा देने पर परिग्रह त्याग में मैथुन त्याग भी गर्भित है, यह समझने और समझकर उनका त्याग करने में समर्थ होता है, किन्तु शेष तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होने के कारण तुरंत समझ लेते हैं कि परिग्रह में मैथुन भी सम्मिलित है, क्योंकि बिना ग्रहण किये स्त्री को नहीं भोगा जा सकता। 1. आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, 24/373-374 2. उत्तराध्ययनसूत्र 23 पुरिसा उज्जुजडा उ वक्वजह्वा य पच्छिमा। मज्झिमा उज्जुप्पना उ तेण धम्मो दुहा कए। 261 पुरिमाणं दुविसोज्झो उ परिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुज्झो सुपालओ। 27 3. स्थानानांगसूत्र, 266 टीका “इहं चेह भावत्ता । मध्यम तीर्थंकराणां विदेहकानाञ्च चतुर्यामधर्मस्य पूर्व पश्चिम तीर्थंकर योश्व पंचयामधर्मस्य प्ररूपणा शिष्या पेक्षया। परमार्थतस्तु पञ्च मास्यवै वोभयेषा मध सौ, यत् प्रथम पश्चिम तीर्थंकर साधवः ऋजुजड़ा वक्रजड़ाश्चेति तत्वादेव पारिग्रहो वर्जनीय इत्युपदिष्टे मैथुनवर्जनभव बोदधुंपारुयितुंचनक्षमा। मध्यम विदेह जतीर्थ साधवस्तु ऋजुप्राज्ञास्तद्वोदधुं, वर्जयितुं च क्षमा इति। For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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