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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 398 स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परबश हो जाता है; किन्तु जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगभव (ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मों में नहीं बंधता। पोद्गलिक प्राण कैसे उसका अनुसरण कर सकते हैं ? महावीर ने जीव की मुक्ति के लिये धर्म का उपदेश दिया। महावीर ने कहा, 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं; रत्नत्रय और जीवों की रक्षा धर्म है ; उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम अकांचिन्त्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य- ये दस धर्म हैं।' ___ महावीर ने आत्मवादी धर्म की प्रस्थापना की। महावीर ने स्पष्ट कहा, आत्मा ही वैतरणी नदी है, आत्मा ही कूटशख्थली वृक्ष है, आत्मा ही कामधेनु दुहा है और आत्मा ही नन्दनवन है। आत्मा ही सुख दुख का कर्ता और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में आत्मा ही अपना शत्रु है। जो दुर्जेय संग्राम में हजारों हजारों योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय ही परमविजय है, बाहरी युद्धों से या? स्वयं अपने ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है ; महावीर ने स्पष्ट कहा, जीवात्मा तीन प्रकार की है: बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं: अर्हत और सिद्ध। इंद्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है, आत्मसंकल्प देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अंतरात्मा है और कर्मकलंक से विमुक्त परमात्मा है। जिनेश्वरदेव का कथन है कि तुम मन, वचन और काया 1. समणसुत्तं, पृ 20-21 जो इंदियादि विजई, भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रंजदि, किंह तं पाणा अणुचरंति ।। 2. वही, पृ 28-29 धम्मो मंगल मुक्किटठं, असिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।। 3. वही, पृ28-29 रयणतयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो । 4. वही, पृ28-29 उत्तमखगमद्दवजव- सच्च सउच्चं च संजमं चेव । तवचागम किंत्रण्डं, बम्ह इदि दस धम्मो ॥ 5. वही, पृ39 6. वही, पृ40-41 आत्मा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पाट्ठिय सुप्पट्टि ओ ।। 7. वही, पृ40-41 जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज अप्पणं, एस से परमो जओ । 8. वही, पृ40-41 __ अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमे हरा ।। 9. वही, पृ56-57 10. वहीं, 156-57 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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