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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 193 ने कहा कि हे प्रभो ! यदि हम लोग इसकी पूजा न करें तो यह सकुटुम्ब हमारा संहार कर देगी। सूरीश्वरजी ने कहा, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा। सूरीश्वर जी के कथन से श्रावकगण देवी की पूजा से विरत हो गये। इस पर देवी सूरीश्वरजी पर बहुत कुपित हुई। वह रातदिन गुरु के छलछिद्र देखने लगी। एक दिन जब गुरुजी सांयकाल के समय बिना ध्यान के बँटे एवं सोये हुए थे, तो देवी ने उनके नेत्रों में पीड़ा उत्पन्न कर दी। पूज्य सूरिजी योग बल से नेत्र पीड़ा का कारण जान गये, देवी स्वयं लज्जित हो गई। वह सूरि जी से प्रार्थना करने लगी कि हे स्वामी ! मैंने अज्ञान भाव से प्रेरित होकर यह अपराध किया है, आप क्षमा करें। मैं अब कभी ऐसा अपराध नहीं करूंगी। हे विभो, आप मुझ पर प्रसन्न हों। सूरिजी बोले, देवी इतना रोष क्यों ? देवी ने कहा, आपने मेरे भक्तों को मेरी पूजा से मना किया है। यदि आप मेरा अभीष्ट मुझे पिला दो तो हे प्रभो! आपके और आपके वंशजों के अवश्य आधीन हो जाऊंगी। आचार्यवर ने कहा कि मैं आपको आपका अभीष्ट कड्डा मड्डा दिलाऊंगी। प्रात:काल गुरुजी के पास सब श्रद्धालु श्रावक एकत्रित हुए। उन्होंने कहा, हे श्रावकों! तुम सब पक्वाल आदि प्रत्येक घर से लेकर पौषधागार में एकत्र मिलो, बाद में संघ को लेकर मंदिर चलेंगे। यह सुनकर सब सामग्री एकत्रित कर पौषशाला में एकत्रित हुए और सूरिजी उन्हें साथ लेकर चामुण्डा के मंदिर में गये। वहाँ पहुँच कर श्रावकों ने देवी का पूजन किया और सूरिजी ने कहा कि हे देवी! तुम अपना अभीष्ट ले लो। ऐसा कहकर दोनों तरफ के पक्वान्न पूर्ण सुण्डकों को दोनों हाथों से चूर्ण कर बोले कि हे देवि, अपना अभीष्ट ग्रहण करो। देवी बोली, हे प्रभो! मेरी अभीष्ट वस्तु कड़डा मडडा है। गुरु बोले हे देवि! यह वस्तु तुम्हें लेना और मुझे देना योग्य नहीं, क्योंकि मांसाहारी तो केवल राक्षस ही होते हैं, देवता तो अमृत पान करने वाले होते हैं। हे देवि! तू देवताओं के आचरण को छोड़कर राक्षसों के आचरण को करती हुई क्यों नहीं लजाती हो? हे देवि! तेरे भक्त लोग तेरी भेंट में लाए हुए पशुओं को तेरे सामने मारकर तुझको इस घोर पाप में शामिल कर उस मांस को वे स्वयं खाते हैं, तू तो कुछ नहीं खाती, अत: तू व्यर्थ हिंसात्मक कार्य को अंगीकार करती हुई पापसे नहीं डरती है ? यह तो निर्विवाद है कि चाहे देवता हो, चाहे मनुष्य हो, पाप करने वाले को मन्वन्तर में नरक अवश्य मिलता है। इस जीव हिंसा के समान भयंकर और कोई पाप नहीं है। तू जगत की माता है तो तेरा कर्तव्य है कि सब जीवों पर दया भाव रखना और तू इसी 'अहिंसा परमोधर्म' का आश्रय ले। इस प्रकार सूरिजी कथित उपदेश से प्रतिबुद्ध हुई देवी सूरि जी को कहने लगी हे प्रभो! आपने मुझे संसार कूप में पड़ी हुई को बचाया है। हे प्रभो! आज मैं आपकी अधीनता स्वीकार करूंगी और आपके गण में भी व्रताधारियों का सानिध्य करूंगी तथा यावचन्द्र दिवाकर आपकादासत्व ग्रहण करूंगी। हे प्रात स्वमरणीय सूरिपुंगव! आप यथासम्भव मुझे स्मरण रखना और मुझे भी धर्मलाभ देना। अपने श्रावकों से कुंकुम नैवैद्य पुष्प आदि सामग्री से धार्मिक की तरह मेरी पूजा करवाना । दीर्घदर्शी रत्नप्रभसूरि ने भविष्य का विचार करके देवी के कथन को स्वीकार कर लिया। पापों के खण्डित करने वाली वह चण्डिका सत्यप्रतिज्ञा वाली हुई। उस दिन से देवि का नाम सत्यका प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार रत्नप्रभसूरि ने देवि को प्रतिबोध देकर विहार करते हुए सवालाख से भी अधिक श्रावकों को प्रतिबोध दिया। ___ उपकेशनगर के मंत्री ऊहड़ ने एक नयामंदिर बनाया, पर दिन को जितना मंदिर बनता, वह रात को गिर जाता। इस स्थिति में जब उसने आचार्य रत्नप्रभसूरि जी से आकर यही सवाल For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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