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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेठियाप्रन्यमाला (३८) दावाग्नि में नित्य जलाती रहती हैं । इन शत्रुभूत इन्द्रियों को सदा वश में रखना चाहिए ॥ ७१ ॥ लब्धुं धर्ममनेकदोपहरणं संसारनिःमारकं, प्राप्तुं पुण्यसुरद्रुमंच सकलाभीष्टप्रदं दुर्लभम् । संहलै विपदं भवाब्धिजनितां चेत्तेऽस्ति कौतहलं, साधो! संहर शीघमिन्द्रियगणं स्वेच्छाविहारोत्सुकम् ।। हे साधो ! अनेक दोषों को हरनेवाले और संसार से पार करनेवाले धर्म को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी इच्छा है । समस्त मनोरथ को पूरा करनेवाले दुर्लभ पुण्यरूप कल्पवृक्ष को प्राप्त करने की यदि तुम्हारी उत्कण्ठा है । संसारसमुद्र में उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण विपत्तियों का संहार करने का कौतुक यदि तुम्हारे हृदय में जागृत हुआ है तो इन पांचों इन्द्रियों की स्वच्छंदप्रवृत्ति को शीघ्र गेक दो ॥ ७२ ॥ लक्ष्मी का स्वभावनीचं गच्छति निम्नगेव मदिरेवोन्मत्ततां पुष्यति, निद्रावद्विनिहन्ति चेन्द्रियगण दलेऽन्धतां गत्रिवत् । धने चञ्चलतांबलेन सततं तृष्णां नयत्यत्कटां, ज्वालाक्कमला जलेषु नितरां संभ्राम्यति स्वेच्छया। लक्ष्मी नदी के समान नीचे अर्थात् नीच पुरुषों के पास जाती है । मदिरा-डागब के समान पागल बना देती है। निद्रा के समान इन्द्रियों को विवेकशून्य करती है। गत्रि के समान अन्धा बनादेती For Private And Personal Use Only
SR No.020509
Book TitleNiti Dipak Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Jethmal Sethiya
PublisherBhairodan Jethmal Sethiya
Publication Year1925
Total Pages56
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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