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सठियाप्रन्धमाता
कवि अपनी लघुता प्रकट करते हैं. सन्तः सन्ततमेव सन्तुसरलाः सद्बोधहीनस्य मे,
__ मूढस्यापि सदा प्रसन्नमनसः सर्वत्र सदृष्टयः। किंवा संहरते कदापि किरणानालादसंवर्द्धका
नीचानामपि वेश्मनोऽमृतनिधिर्नक्षत्रचूडामणिः॥
मैं बोधहीन हूं, सज्जन पुरुष मेरे साथ सदा सरलता का व्यवहार करें,क्योंकि उदार पुरुष मूर्ख पर भी सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। क्या तारागण का चूड़ामणि चन्द्रमा अपनी आनन्द देनेवाली अमृतमयकिरणों को चाण्डाल आदि नीचपुरुषों के घर से संकोच लेता है ॥२॥
भन्यजीवों के प्रति हितका उपदेश आयुः साधनमन्तरेण विफलं वर्गत्रयोत्पादकं ,
नृत्वं प्राप्य सुदुलभं बहुतपः साध्यवृथा मा कृथाः धर्मो रक्षति दुर्गतेनरवरं सिद्धिं च सम्पादयन् , कामार्थावपि वर्द्धयेद्धितकरौ कृत्वा वशे तौयतः॥३॥
जिसने धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थ का साधन नहीं किया है, उसका मनुष्यजन्म पाना निष्फल है। यह मनुष्यपर्याय अत्यन्त दुर्लभ है, इस को व्यर्थ नहीं खोना चाहिये । लेकिन इस स तपधर्म का पालन करना चाहिये, क्योंकि धर्म ही मनुष्य को दुर्गति स बचाता है और मोक्ष देता है। तथा काम- इन्द्रियमुख और अर्थ-- धन की प्राप्ति भी इसी के आधीन है अर्थात् संसारी जीवों को सुएखदायी अर्थ और काम है, इन की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है,
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