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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org re बैठे हुए थे। उनके मनमें यह भावना पैदा हुई - यदि भगवान यहाँ आवें तो मैं उनका दर्शन करूँ और उनकी उपासना करूँ । भगवान निषधकुमारके मनकी बात जान ली और अठारह हजार श्रमण के साथ नन्दन वन उद्यानमें पधारे । निषधकुमार भगवानका दर्शन किया, और बादमें माता पितासे पूछकर अनगार हो गये और बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदित कर काल प्राप्त हुए । उनके काल प्राप्त होनेके बाद वरदत्त अनगारने भगवानसे पूछा - हे भदन्त ! आपका अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध अनगार इस शरीर का छोडकर कहाँ गये ? भगवानने कहा - हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध नामक अनगार सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुआ । वहाँ उसकी स्थिति तेंतीस सागरोपम है । वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगर में विशुद्ध मातृ पितृ वंशवाले राजकुलमें उत्पन्न होगा, बाल्यावस्था बीत जानेपर स्थविरोंके समीप प्रत्रजित होगा और सिद्ध होकर सभी दुखोंका अन्त करेगा । इसी प्रकार मायनी आदि ग्यारह राजकुमारोंकाभी वर्णन जानना चाहिये । ये सभी भगवान अरिष्टनेमिके समीप प्रत्रजित हुए और अपने नश्वर शरीरको छोड सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव होकर उत्पन्न हुए और च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे और सभी दुखोंका अन्त करेंगे यह पाचों उपाङ्गका संक्षिप्त वर्णन है । राजकोट १५ मई १९४० J Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस रियालिका आदि पाचों उपाङ्गों पर जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराजने सुन्दरबोधिनी नामकी टोका की है। इस टीकाको विशेषता संस्कृत प्राकृतज्ञ विद्वान मूल और संस्कृत टीकाको देखकर समझ लेंगे । और सकल : साधारण भव्यजन हिन्दी और गुजराती भाषा अनुवादसे इसकी विशेषता समझेंगे । इस पर हम अधिक लिखना उचित नहीं समझते, क्यों कि ' हाथ कङ्गनको आरसी क्या ? ' बस; इसी न्यायसे हम अपना वक्तव्य समाप्त करते हैं । इयम् । मुनि कन्हैयालाल. For Private and Personal Use Only
SR No.020503
Book TitleNirayavalika Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj, Kanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1948
Total Pages479
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size23 MB
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