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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना. संसारके सभी जीव परम अमृत समान सुखकी गवेषणा करते हैं, मुखके प्रयत्नमें लगे रहते हैं, सुखके कारणको ढूँढते हैं, सुखके वातावरणको पसंद करते हैं, सुखकी याचना और सुख ही की मिन्नत मानते हैं, तो भी वे परम सुखके बदले परम दुःख ही प्राप्त करते हैं। सभी प्रयत्न सभी कारण और सभी वातावरण दुःखरूप जालमें परिणत होकर आत्मरूप भोले भाले मृगोंको फसाकर दुःखित करते हैं। जिससे आत्मा अपना भान भूलकर अज्ञानरूपी अन्धकारमें गोता खाती है भटकती है, फिर इन्द्रिय रूपी चोर चारों तरफसे आकर दुर्बल आत्माको घेर लेते हैं और अनेक प्रकारकी विडम्बना करते हुए आत्माको हैरान करते हैं । जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको चूर २ कर डालता है वैसे ही वे आत्माके शम-दम आदि गुणोंको नाश करके आत्माको जड जैसा बनाते हुए दीन होन बनाकर छोडते हैं। जब आत्मा निर्बल हो जाता है तब मोहरूपी सुभट आत्मराज्यमें प्रवेश करता है, और वहाँ विघ्नपरंपराको उपस्थित कर आत्माका सर्वस्व लूटकर उसको भवरूप कूपमें डालता है। वहाँ आत्माको संयोग वियोगरूप आधिव्याधि रूप दुष्ट जलजंतु हरएक तरहसे कष्ट पहुँचाते हैं, सर्प जैसे मेढकको गिल जाता है वैसे ही जन्म जरा मृत्यु आत्माको गिलती रहती है। फिर किस प्रकार सुखकी आशा की जाय ? ऐसी अवस्थामें तो सुखका स्वप्न भी नहीं मिल सकता, ' हा कष्टम् ' तो भी संसारी जीव सुखकी आशा करते हैं। फिर अविरति रूपी राक्षसी भाकर आत्माको घेर लेती है और विष समान विषय भोगोंमें फसाकर उसे निःसार बना देती है, आत्माके निज स्वरूपको पल्टाकर विभावदशा उत्पन्न करती है जिससे आत्मा परस्वरूपको अपना स्वरूप समझकर भवभ्रमण रूप परंपराकी और भी वृद्धि करती हुई कष्ट पर कष्ट भोगती है, सुख कैसे प्राप्त हो इसकी तलाशमें घूमती है, इतनेमें कषाय रूप राक्षस विविध प्रकारसे त्रास पैदा करता है, तो भी आत्मा दुःखके निदान रूप उस कषायको ही सुखका निदान समझकर उसमें आसक्त होती है, सुखके जितने भी कारण हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020503
Book TitleNirayavalika Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj, Kanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1948
Total Pages479
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size23 MB
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