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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) श्री विनयविजय जी, जैन-दर्शन के चोटी के विद्वान् उपाध्याय श्री यशोविजय जी के समकालीन थे। अनेक कठिनाइयों तथा विघ्न-बाधाओं की अग्नि-परीक्षा में गुजर कर इन दोनों महानुभावोंने साथ-साथ संस्कृत-विद्या के केन्द्र काशी में जाकर सब दर्शनों का गहरा अध्ययन एवं मन्थन किया था। सन् १७३८ में रान्देर चातुर्मास में श्री विनयविजय जी का देहावसान होने के बाद उनकी गुजराती कृति 'श्री पालरास' के उत्तरार्ध की पूर्ति भी श्री यशोविजयजी ने ही की थी। ___ उनकी कृतियों, ग्रन्थों और रचनाओं को दृष्टि में रखते हुए यह अधिकारपूर्वक कहा जा सकता है कि श्री विनयविजय जो अपने समय के संस्कृत, प्राकृत तथा इतर भाषा के एक प्रकाण्ड पण्डित, धुरन्धर विद्वान् , जैन संस्कृति के मर्मी विचारक और एक सफल कवि-कलाकार थे। लोकप्रकाश, हैमलघुप्रक्रिया, कल्पसूत्र की सुखबोधिका टीका, नय-कर्णिका और शान्तसुधारस भावना उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं, जिनका जैन-वाङमय में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके अतिरिक्त, गुजराती भाषा में उनकी कृतियाँ अधिक हैं। जिनमें श्री पालरास, श्री भगवती सूत्र नी सज्झाय, षडावश्यकनु स्तवन, विनय-विलास, अध्यात्म-गीता, जिनचौबीसी मुख्य हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020502
Book TitleNaykarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Sureshchandra Shastri
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year
Total Pages95
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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