SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) नाडीदर्पणः। नाडीगतिरतिक्षीणा भवेन्मलविभेदतः। जीर्णज्वरादल्परक्ता दुर्बलत्वाच तादशी ॥४४॥ अर्थ-मलके निकलनेसे नाडीकी गति अत्यंत क्षीण होती है । उसीप्रकार जीर्णज्वरसैं अल्परुधिरसैं और दुर्बलतासैंभी नाडी अतिक्षीण होती है ।। ४४ ॥ तर्पयन्त्यसृजं देहे व्याघातैर्गतिभेदतः। तेजःपुना चञ्चला च दुर्बला क्षीणधीरकैः॥४५॥ अर्थ-ये संपूर्ण रक्तवाहिनी नाडी आयातकरके और अपनी गतिके भेदसैं देहमें रुधिरको तर्पण करेहै अर्थात् सर्वत्र फैलाती है। उनकी गति भेद कहतेहै । जैसे तेज:पुंजा, चंचला, दुर्बला, क्षीणदा, और धीरगामिनी, ये नाडियोंकी पांच प्रकारकी गती है ॥ ४५ ॥ चंचला और तेजःपुंजगति । रक्तोष्णे शीघ्रगा नाडी ज्वरे च चञ्चला भवेत् । ज्वरारम्भे तथा वाते तेजःपुना गतिः शिरा ॥४६॥ अर्थ-तहां रुधिरके कोपमें गरमीमें नाडी शीघ्र चलती है, उसीप्रकार ज्वरमें चंचला नाडी होती है और ज्वरके आरंभमें तथा वातके रोगमें नाडीकी तेजःपुंजा गति होती है ॥ ४६॥ दुर्बलाऔरक्षीणनाडी। दुर्बले ज्वररोगे च अतिसारे प्रवाहिके। दुर्बला क्षीणदा नाडी प्रबला प्राणघातिका ॥४७॥ अर्थ-दुर्बलतामें ज्वरमें अतिसार और प्रवाहिकारोगमें नाडीकी दुर्बला गति होती है, क्षीणदा नाडीप्रवल प्राणोंकी नाशक होती है ॥ ४७ ॥ बहुकालगता रोगाः सा नाडी धीरगामिनी। अर्थ-जिसप्राणीके बहुतदिनोंसे रोगहोवे उसकी नाडी धीरगामिनी होती है । सुखीपुरुषकीनाडी। हंसगा चैव या नाडी तथैव गजगामिनी। सुखं प्रशस्तं च भवेत्तस्यारोग्यं भवेत्सदा ॥१८॥ अर्थ-जिसप्राणीकी नाडी हंसकीसी अथवा हाथीकीसी चाल चले उसको उत्तम सुखहोय और सदैव आरोग्यरहे ॥ १८ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy