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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषधमत्कार समीक्षायाः गट है। शिरोमणि में लिखा है कि चन्द्रमण्डल के ऊर्श्वभाग में पि. तृगणों का निवास है यथा “ विधीभागेपितरोधसन्ति” इसी प्रसार मंगल ग्रह में जल तथा बरफ अधिक होने के कारगा विलायत के लोगों ने निश्चय किये हैं। भौम के अतिचार होने से प्रायः वर्षा होती है और सर्यमण्डल के प्रागे भौम के प्राने से सूर्य अधिक आकर्षण करे तो अनावृष्टि हो । जैसे हमारे ग्रन्थों में लिखे हैं यही वृष्टि के योग हैं। उक्तंच चलत्यंङ्गारकेवृष्टिः त्रिधावृष्टिःशनैश्चरे। तथा, भानोरग्रेमहीपुत्रो जलशोषःप्रजायते ॥ इत्यादिइसी कारण इंग्लण्ड के तत्वदर्शी पण्डित गणा भारतवर्ष ही को ज्योतिष विद्या का मूलस्थान बतलाते हैं। पर हाय भारतवर्ष के कुछ नई रोशनी बाले महाशय संस्कृतविद्या न जानने और नई शिक्षा दीक्षा प्राप्त होने के कारगा अपनी विद्या की निन्दा करने को उतारू हो बैठते हैं । अहा ! समय की क्या ही विचित्र गति है, जो देश सब देशों का शिरमौर था, वही प्राज इस दीनहीन दशा को प्राप्त हुआ, इसकी विद्या बद्धि विदेशी शिक्षा में लय होगयी है, धर्म विप्लव होमे से अनेक मत मतान्तर खड़े होगये। देश की सब विद्या लोप होने लगीं पूरे २ विद्वानों का प्रभाव होने से इस उन्नीसवीं सदी में-गणित भाग को स्थलता का दोष और फलित को नमिलने का दोष, मन्त्रादि को ठगई का दोष, यन्त्रों को बा. हियाती का डिप्लोमा, वेद विद्या को अंगनी रागों का खिताव, पुराणों को उपन्यास की पदनी, अंगरेजी इष्टोनोमी में वैदेशिक का प्रापवाद, एन्टोलोजी को मन की गढन्त, इ. त्यादि कलि महाराज के दिय पदकों को लूट होने लगी है। विलायत के लोग जिस प्रकार माई २ विद्या मीरहने की चेष्टा में लगे हैं ठीश पाली प्रकार भारतवासी अपनी विद्या का लोप करने में कटिबद्ध है। अपने एर्वजों की निन्दा, अपने For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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