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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६८ ) 1. - और सीपों से युक्त इस समुद्र में से निकले हुए सुवर्णमय इस पर्वत को देख जो हनुमान के विश्रामार्थ सागर के वक्षःस्थल को फाड़ कर उत्पन्न हुआ है । यहीं पर विभु व्यापक महादेवजी ने हमें वरदान दिया था, यह जो महात्मा समुद्र का तीर्थ दीखता है इसका नाम सेतुबन्ध है और तीनों लोकों से पूजित है, यह परम पवित्र है और महा पातकों को नाश करने वाला है । इन अन्तिम दो लोकों पर बाल्मीकि रामायण के टीकाकार लिखते हैं कि:सेतोर्निर्विघ्नता सिद्ध्यै समुद्रप्रसादानन्तरं शिवस्थापनं रामेण कृतमिति गम्यते कूर्मपुराणे रामचरिते तु अस्थाने स्पष्टमेव लिङ्गस्थापनमुक्तं त्वत्स्थापितलिङ्गदर्शनेन ब्रह्महत्यादिपापक्षयो भविष्यतीति महादेववरदानं च स्पष्टमेवोक्तं, सेतुं दृष्ट्वा समुद्रस्य ब्रह्महत्यां व्यपोहतीतिस्मृतेः " ॥ 66 अर्थ- सेतु निर्विघ्न पूर्ण हो एतदर्थ रामचन्द्र जी ने समुद्रप्रसादानन्तर यहां शिवमूर्ति का स्थापन और पूजन किया था, कूर्म पुराण में तो इस प्रकरण में रामचन्द्रजी का लिङ्गस्थापन और महादेवजी के वरदान का स्पष्ट वर्णन है तुम्हारे स्थापित The हुए शिवमूर्ति के दर्शन करने से ब्रह्महत्यादि पापों का क्षय होगा, और स्मृति में भी लिखा है कि समुद्र का सेतुदर्शन करने से महा पातकों का नाश होता है ॥ महाराज दशरथ जिस समय रामचन्द्रजी के वियोग में मृत्युङ्गत होगए थे तब भरतजी अपनी ननसाल में थे उनके बुलाने के लिए दूत भेजा गया जिस समय भरतजी अयोध्या के समीप पहुंचे तो उन्होंने अनेक अशुभ चिन्ह देखे, वे कहते हैं, यथा For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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