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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) जो सदैव काल कहा करते हैं कि ईश्वर सर्व व्यापक है और वह परिच्छिन्न मूर्ति में कदापि नहीं आसक्ता है, अब सोचना चाहिए कि जब सर्वव्यापक ईश्वर एक छोटे से ओंकार शब्द में समा सक्ता है तो क्या वह मूत्ति में नहीं समा सक्ता । और जब कि एक छोटासा ओंकार शब्द सर्वव्यापक ईश्वर का बोध करा सक्ता है तो फिर मूर्ति क्यों न करा सकेगी ? जैसे कि निराकार ईश्वर ओंकार के स्वरूप में ही लिखा या माना जाता है, तथैव यदि पत्थर या धातुकी मूर्ति में भी इसकी स्थापना मानली जाए, तो क्या हानि की बात है। ईश्वरज्ञान निस्संदेह निराकार है ऐसा भी आप मानते हैं और देखें साकार जड़ वेदों में भी ईश्वर का ज्ञान मानते हो, भला यह स्थापना नहीं तो और क्या है ? । इसलिए आपको ऐसा तो अवश्य ही मानना पड़ेगा कि निस्सन्देह परमात्मा के निराकार ज्ञान की साकार वेदों में स्थापना की हुई है और ईश्वर परमास्मा का ज्ञान निःसंदेह अनन्त है, परन्तु प्रमाणवाले शास्त्रों में तो इसकी स्थापना करनी ही पड़ती है, अथवा कहना पड़ता है कि वेदों में परमात्मा का ज्ञान है * । इस प्रकार यदि निराकार ईश्वर की प्रतिमा बनाली जावे तो क्या दोष है ?। और मुनिए, कि आर्यप्रतिनिधिसभा पंजाव के बनाए हुए जीवनचरित्र स्वामी दयानन्द जी के पृष्ट ३५९ में लिखा हुआ हैकि ईश्वर का कोई रूप नहीं है, परन्तु जो कुच्छ इस संसार में दृष्टि गोचर हो रहा है वह इसी का ही रूप है । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि मूर्ति भी परमात्मा का रूप है जब कि संसार की सर्व साकार वस्तु परमात्मा का रूप है तो क्या मूर्ति परमात्मा के रूपसे पृथक् रहगई। * मार्य सिद्धांताफल यह लिखा है, जैनों को मान्य न । For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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