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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरार्द्ध-प्रथमोऽध्यायः ॥ ८५ भाषा-जिस नक्षत्र में जन्म हो उसके देवता सम्बन्धी तथा नक्षत्र सम्बन्धी नाम रक्खै तथा आपस्तम्ब १४ "नक्षत्र नाम च निर्दशति,, । वालक का नक्षत्र सम्बन्धी नाम धरै । वस कह दीजिये कि ये सभी ग्रन्थ यवनों के वनाये हैं। यवन विचारे चाहे इन रीतियों को आज तक भी नहीं मानते पर "वककी तीन टांग" वाली हट आप की पूरी हो जायगी। प्रश्न-जोशी जी का जोर साम्य पर अधिक है। आपने साम्य का विषय किसी पुराण में नहीं दिखलाया ॥ ___ उत्तर-लीजिये जोशी जी ! मानैं अथवा न मानें हम पुराणों में भी दिखलाते हैं अग्नि पुराण के १२१ अध्याय से १३२ तक ज्योतिष का विषय व्यास जीने सूक्ष्म रूप से कहा है। ज्योतिःशास्त्रप्रवक्ष्यामि शुभाऽशुभविवेकदम् । पातुर्लक्षस्यसारंयत् तज्ज्ञात्वासर्वविद्ववेत ॥ षडष्टकेविवाहोन नचद्विादशेस्त्रियाः । नत्रिकोणे हतप्रीतिः शेषेचसमसप्तके ॥ द्विादशे त्रिकोणेच मैत्रीक्षत्रिययोर्यदि। भवेदेकाधिपत्यंच ताराप्रीतिरथापिवा ॥ आदिनाडीवरंहन्ति मध्यनाडीचकन्यकाम् । अन्यनाडीद्वयोमृत्युर्नाडीदोषंविवर्जयेत् ॥ ____ पाठक महाशय ! वेद ब्राह्मण, गृह्यसूत्र सुश्रत, रामायणा, तथा पुराणादि, के अनेक प्रमाणा देकर ज्योतिःशास्त्र (फलित) की प्राचीनता मिटु कर दी है। सभी विषयों का पुष्ट समाधान हो गया । जोशी जी ने अपनी पुस्तक में यवनों से ज्योतिष का चलना इत्यादि वेप्रमाण मनमाना लिखा था प्रमाण कछ भी न दे कर जो मुंह में आया सो लिख दिया। अब उस पुस्तक का प्रबल खण्डन देख कर रद्ध गुरुजन-धर्मात्मा सज्जन प्रसन्न होंगे। बोलो सनातनधर्म की जय ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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