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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ विशाल इशराफ इत्यादि नाम रखकर योगों के नाम बदल दि. ये । कतिपय विद्वानों का मत है कि आदित्यदास जी से पढ़ • कर यबमाचार्य ने सानिक रथे * कहा भी है। उक्तञ्ज-ब्रह्मणागदितंभानो र्भानुनायवनायतत् । __यवनेनचयत्प्रोक्तं ताजिकतत्प्रचक्षते ॥ इस से स्पष्ट है कि यह विद्या हमारे ही यहां से यधनाचार्य को प्राप्त हुई थी। यवन के रचे हुए होने से साजिक में उक्त फारशीय शब्द भागये हैं। यह बात भी ज्योतिविद् पगिडत मा. नते हैं। इसीप्रकार रमान भी यहां से ले कर यवनों ने वि. स्तारपूर्वक वगा लिया होगा। यदि यवनों की विद्या ही रमन को मान लो ता भी विशेष हानि नहीं । कारण कि हिन्दू ज्योतिष का रमन से कुछ सम्बन्ध नहीं है। प्रश्न-ज्योतिष के विद्यार्थी रमल मीखने की क्यों चेष्टा करते हैं ? और कई ज्योतिषी रमन से प्रश्न आदि भी क्यों करते हैं। 'करार-बम में हानि ही क्या है? जातिद्वेष फलितशाख में श्या ? यह धर्म का विषय तो है ही नहीं, (फले प्राप्त मलन कि प्रयोजनम् ) यह न्याय है, ग्राम से काम, या गुठली से, (मीचादप्युतमा विद्याम्) यदि कोई माज कल किसी यूरोपियन में साइन्स-मादि पढे या साइन्स सीखकर रेल तार चलाने लगे तो उस को बुरा समझोगे या अच्छा ? थर्मामेटर से बखार की - * पवनाचार्य ये यान नहीं थे? किन्तु ज्योतिष के पूर्णवि. द्वान बड़ेदयालु ब्राह्मण थे । इन्हें ज्योतिषविद्या फैलाम का बड़ा शौक था, पात्र कुपात्र का विचार न करके जो पास पाया उसे पढ़ाया करते थे। एक समय यत्रनलोग ज्योतिषविद्या के जिज्ञासु हो कर इनके पाम आये, इन्हों ने उन यवनों को पढ़ाया। तभी से यवमा वार्य प्रसिद्ध हुए। For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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