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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ अन्यच्च। नक्षत्रपीडाबहुधा यथोकालाद्विपच्यते। तथवारिष्टपाकञ्चवतेबहुधाजनाः॥सू०अ०२८।४। भाषा-जैसे नक्षत्र पीड़ा ( ग्रहपीड़ा ) बाधा काल पाकर पकजाती है । उसी भांति अरिष्ट भी काल पाकर पक जाता है। अपिच-संस्थिरत्वान्महत्वाच धातूनां क्रमणेनच। निहन्त्यौषधवीर्याणि मन्त्रान्दुष्टग्रहो यथा ॥ सु० अ० २३ । २३ ॥ भाषा-चढ़ा हुधा ब्रा स्थिर होने और बढ़ जाने से तथा धातुओं के अाक्रमया से औषधि के गुणों को मष्ट कर देता है जैसे खोटा ग्रह मन्त्र नाम सुविचारों को नष्ट कर देता है। और देखिये धर्मशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि याज्ञवल्क्य जी ग्रहों के आधीन सुख दुःख तथा उन का पूजन शान्ति प्रादि लिखते हैं। यश्यस्ययदादुष्टः सतंयत्नेनपूजयेत् । ब्रह्मणेषांवरीदत्तः पूजितापूजयिष्यथ ॥८॥ ग्रहाधीनानरेन्द्राणा मुच्छाया:पतनानिच, भावाभावौचजगत-स्तस्मात्पूज्यतमाग्रहाः ॥६॥ या० व० स्मृ० शां० अ०८।६॥ भाषा-जिस को जो ग्रह प्रतिकूल हो तो वह बस ग्रह की पूजा करै । ब्रह्माजी ने इन्हें घर दिया है कि जो इन को पजेगा उन्हें यह भी तुष्ट करेंगे ॥ राजानों की बढ़ती या घटनी ग्रहों के प्राधीन है और जगत् की उत्पत्ति विनाश भी उन्हीं के प्राधीन हैं इस लिये इन की पूजा भली भांति करनी चाहिये। श्रीकामःशान्तिकामोवा ग्रहयज्ञसमाचरेत् । वृष्टयायुःपुष्टिकामोवा तथैवाभिचरत्नपि॥५॥ सूर्य:सोमोमहीपुत्रः सोमपुत्रोबृहस्पतिः । शुक्र: शनिश्वरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः ॥६६॥ या० व० शां०॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020489
Book TitleMurtimandan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhivijay
PublisherGeneral Book Depo
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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